कुछ वजह ज़रूर है इस मुलाक़ात की।
वरना कोसों दूर ,
आज मेरे ही घर के सामने तू न रहने आता।
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का सफर दुनिया को नहीं दिखता।
दुनिया के लिए तो सिर्फ ये एक कहानी भर है।
जानता तो वो है , जो इस कहानी का नायक भी खुद है
और खलनायक भी खुद ‘था ।
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कुछ ख़ास तो ज़रूर है तुम्हारे
सजने सँवारने के इस अंदाज़ में
यूँ ही नहीं इसे
“ सोलह श्रृंगार कहते “
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तो था हमें
कि इस कहानी का कोई अंजाम नहीं ,
मगर कम्बख्त दिल ने
कभी हमारी बात पर यकीन ही नहीं किया।
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यह जानते तो सभी हैं ,
अक्सर सच को अपनाने की
हिम्मत नहीं कर पाते |
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हम घर से निकल तो गए
मगर रास्ता तो सिर्फ बहाना है ,
ढूंढ़ने की दरकार तो खुद को है।-
आजकल थोड़ा कम बोलने लगा हूँ मैं ,
सबके साथ दिल कम खोलने लगा हूँ मैं ,
थोड़ा लड़खड़ाकर - गिरकर ,
अपने पैरों पर अब खड़ा हो रहा हूँ मैं।
सच मायने में , अब बड़ा हो रहा हूँ मैं।
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क्या फायदा उस काम का जो करना पड़े दोबारा ,
क्या फायदा उस काम का जो करना पड़े दोबारा ,
ये तेरा इश्क़ तो नहीं ,
जो रोज़ कर सकें-
भी जगमगा उठें ,
हमें साथ जो तेरा मिल जाए ।
हर मंजिल को हम पा लिए,
हमें हाथ जो तेरा मिल जाए ।
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