Himanshu Garg   (काफ़िर)
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Follow my writings on instagram : shaakir_kaafir
Joined 25 April 2017


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5 JUL 2022 AT 0:52

तारा नही रहा काफ़िर खुदको इक तारे का भूत कर चुका है
रोशनी अब पहुँची है आंखों तक वो तो सालों का मर चुका है

उसका सर्दी से काँपना लोगों को अब टिमटिमाना लगता है
टूटने की हसरत है बस ऊंचाई से तो जी कबका भर चुका है

इर्द गिर्द घूमते थे सभी, गर्माहट उसकी भी जब कम ना थी
दुत्कारते है आज वो आसमां, जिनसे होके वो गुजर चुका है

पूछता था कैसा होता होगा किसी पृथ्वी के करीब आना
अब जानके अंजाम मुलाकात का वो डर से सिहर चुका है

वो बस एक अतीत है जिसे अब कोई देखने वाला नही
देखे भी क्यो जब हर शख्स यहाँ अतीत से उबर चुका है
#काफ़िर

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1 JUL 2022 AT 15:27

◆ मुंडेर ◆
आत्मीयता जाहिर उन्होंने सवालों से घेर कर दी
ना नही किया मैने पर हाँ करने में थोड़ी देर कर दी

तीन-पांच से आगे ना बढ़ा जबसे गुणा भाग सीखा
ज़िंदगी भी जोड़ बाकी में निन्यानवे का फेर कर दी

उड़ने की जल्दी थी पंछियों की तरफ झांका भी नहीं
जो सपनो की चिड़िया आधी तीतर आधी बटेर कर दी

वो सुनाते थे जाके अपने किस्से किसी पीर को अब
जबसे कीमत मैंने हर गम की बस एक शेर कर दी

अपने हवाई किले की मंज़िल बढ़ाता गया 'क़ाफ़िर'
फ़िर लोगो से मिलने का जगह छत की मुंडेर कर दी
#क़ाफ़िर

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3 MAY 2022 AT 2:22




भला जिसकी नजर में हर रिश्ते का अंजाम भुरभुरा होना है
कितना गिरे वो खुद अगर उसे सबकी नजरों में बुरा होना है

डंडे सा सीधा है जो इन पहियों के चक्कर में टांग अड़ाता है
सही तरीका जबकि पहियों के जोड़ो के बीच का धुरा होना है

मुख में राम और मुख में ही छुरी ये सोच अपने क्यो ढूढता है
यहां स्वजन होने का अर्थ मुख में काम बगल में सुरा होना है

खुदखुशी करके औरों के सामने खुद को शहीद समझता है
कायर है 'काफ़िर' सा उसे भी कौनसा रणबांकुरा होना है
#क़ाफ़िर

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30 MAR 2022 AT 0:22

◆ मिलनसार ◆
आज गले मिलके गया है ना जाने भला क्या चाहता है
शायद कल जितनों से मिला उनसे ज्यादा वफ़ा चाहता है

बाजार जरूरत पे चलता है और अभी जरूरत है नही
वो तो उल्फत का व्यापारी है हसद की आबोहवा चाहता है

तर्क-वितर्क निषेध है उसके लिए जो हाँ में हाँ मिलाता है
शायद वो शख्स सुनना ना किसी से कभी ना चाहता है

अगली दफ़ा वो क्यो ही पूछेगा 'काफ़िर' से कि कैसे हो
जो उसकी गर्मजोशी पे लिखी कोई कविता चाहता है
#क़ाफ़िर

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29 MAR 2022 AT 0:29

◆ अनपढ़ ◆
सफेद चोगा पहनकर खुद को और ज्यादा कंजड़ मालूम होता हूँ
प्यास यम के कौवे को लगती है मैं घड़े का कंकड़ मालूम होता हूँ

मुसव्विर से सीखा है कि हर अक्स में आकृतियां देख सकते हैं
आइने में मेरा अक्स नही असलियत है जो अनगढ़ मालूम होता हूँ

कहते है धूल है इंसा जिसे विज्ञान की हवा से बचके रहना होगा
तभी तो वातानुकूलित कमरों में मैं पनपता अंधड़ मालूम होता हूँ

वो फ़ाज़िल समझते हैं खुद को मेरा ही लिखा पढ़कर 'काफ़िर'
मैं मुक्तिबोध को पढ़ता हूँ तो खुद को बेहद अनपढ़ मालूम होता हूँ
#काफ़िर

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4 JAN 2022 AT 1:43

किसी मंदिर की मुरझाई हुई माला के फूल से ये लोग
एक ही डोर पे टिके पंखुड़ियों की गिनती पे लड़ रहे है
'काफिर' को भी धागे में पिरोकर क्या खुदा को भेंट करेंगे ?
अगर हाँ तो जल्दी करें कांटे कई है और दिनबदिन बढ़ रहे है
#क़ाफ़िर

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3 NOV 2021 AT 1:01

भूखे बहुत है ये लोग भला पहले खत्म अपना निवाला करते है
फिर थाली भरी दिखे किसी की तो दाल में कुछ काला करते है

रोशन है बंगले कई फिर इन छप्परों से निकलती लपटों से ही
आग लगानी जरूरी है जनाब वो कहाँ सिर्फ उजाला करते है

लक्ष्मी जी की मेजबानी को आतुर है वो किवाड़ भी आज तो
जो खिड़कियों के सहारे झांक कर मेहमानो को टाला करते है

सच बोलने पे कटघरे में घसीटे जाना तो लाजमी है 'काफ़िर'
वो बस गलतफहमी के लिए गवाह नही ढूढते यूं ही पाला करते है
#काफ़िर


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2 NOV 2021 AT 2:34



बड़े खुश दिखते हो अमावस पे भी जब भी ये दीवाली आती है
यूं तो चांद के सगे बन फिरते हो फिर भी ना तुमसे टाली जाती है

मिठास जरूरी है रिश्तों में जिसे ये कड़वी जबान चट कर देती है
बचती है तो सोनपापड़ी सी याद जो डब्बे से ना निकाली जाती है

भला चायनीज लाइट सी होती है कुछ रिश्तों की डोर आजकल
चकाचौध भरी मगर बस तीज-त्योहारों पे ही खंगाली जाती है

दिल की दीवारें किसी और के रंग में रंगकर बड़ा इतराते हो
अपनो की जिम्मेदारी चाहे इस चारदीवारी से हटाली जाती है

बिना तमाशे के नही रहते आतिशबाजी से होते है कुछ रिश्ते
जलाने को सूतली जिनकी फिर ईर्ष्या जेहन में पाली जाती है
#काफ़िर


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31 OCT 2021 AT 3:04

भरम है कुछ लोगो को बस कि जिंदगी बिखर रही है
कुछ को है ग़लतफ़हमी भी कि उन्हें कोई फ़िकर नही है

माथे की लकीरों से सब बयां करके वो मुंह बंद रखते है
मगर भूख जो बची मोह की वो दिनबदिन निखर रही है

शुभचिन्तकों द्वारा चढ़ा दिए गए है जो मायावी पर्वतों पे
अब टिका सके पांव अपने इतना बड़ा वो शिखर नही है

क्या आप भी शामिल है उनमें अपने खुदा से पूछिए
मगर याद रखना कि करना 'काफ़िर' का जिकर नही है
#काफ़िर

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19 OCT 2021 AT 1:57


उस वक़्त तन्हा नही होता जब अकेला बिस्तर पे गिरा रहता है
वो सबसे ज्यादा तन्हा तब होता है जब लोगो से घिरा रहता है

पांव नही पसारता यूं ही वो उनके लिहाफ में किस्सों को सुनके
भला हाथ में हमेशा उसके अपनी चादर का एक सिरा रहता है

तोहफे पसन्द नही अपनो के और खरीदने के अभी लायक नही
वरना दाम तो उसके सपनो का भी बाजारो में बस गिरा रहता है

कभी वक़्त सम्भाल के नही वक़्त निकालके आओ तो बताना
ढूढेंगे कि क्या 'काफ़िर' के सिवा भी यहाँ कोई सरफिरा रहता है

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