himanshu chaturvedi   (हिमांशु चतुर्वेदी”मृदुल”)
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Joined 7 October 2020


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15 AUG AT 9:20

कुछ कर गुजरने का अरमान वतन के लिये
स्वाभिमान से लेकर अभिमान वतन के लिये
यूँ तो सरज़मीं पे कोई हस्ती नहीं मेरी…..
फिर भी लिखने चला दास्ताँ बस वतन के लिये


आरज़ू है सासों के तार से सिंह की दहाड़ तक
हिमालय से मरु के थार और हिंद के पार तक
शान तिरंगे की सदा यूँ ही बढ़ती जाये
हर माँग का सिंदूर है उधार , बस वतन के लिये

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26 JUL AT 16:26

कारगिल के वीर🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳

ये दिवस है बलिदान का,मातृभूमि के नाम पे,
मिटा दिया जिन्होंने अपने वजूद,
अपनी हस्ती को, है दिन उनके सलाम का

राष्ट्र रक्षा जिनका धर्म था,
दिल में जिनके बसता सिर्फ़ वतन था,
मात्रभूमि के नाम पर,खुद को मिटा देना,
जिनके लिए एक जश्न था

हर सांस, रक्त हर बूँद थी बस नाम वतन के
अंतर्मन जिनके बसता केवल जन गण मन था
देश की आन ही थी सर्वोपरि
और हर चोटी पर तिरंगा उनका स्वप्न था

अरे पहाड़ों से गिरते पत्थर, हर पल बरसते
गोली और बारूद में भी उन्हें रोकने का कहां दम था
हिमालय चढ़ते हर एक सैनिक के
एक हाथ में तिरंगा तो दूजे में कफन था

कर देते हैं आज भी हंसकर
खुद को बलिदान, केवल राष्ट्र के नाम
सर्वोपरि है जिनके लिए सिर्फ़ भारत माता का नाम
ऐसे भारतभूमि के सपूतों को है मेरा शत शत प्रणाम
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳

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6 JUL AT 17:57


दूनियाँ को बदलने वालो की लगी भारी भीड़ है
मगर ख़ुद को बदल सके, हाँ विरले ही गंभीर है
हर दूजे के चरित्र में बस ख़ामी नज़र आती है
मगर क्या करे……….
नज़र ये ना , ख़ुद पे कभी जाती है
भक्ति के बाजार में सब कुछ बिक जाता है
मगर ये इंसा बस ख़ुद को ना खोज पाता है

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5 MAY AT 7:03

निर्मल मन निरोगी काया
सहज योग जिसने अपनाया

कुंडलनी को जाग्रति कर
संतुलन चक्रों में पाया
ब्रह्मरंध्र के भेदन से
सबने चैतन्य है पाया
हो निर्मल मन निरोगी काया……..

भूत भविष्य के जाल से
हाँ ख़ुद को मुक्त है पाया
होकर के निर्विचार
ध्यान का अर्थ समझ है आया
हो निर्मल मन निरोगी काया…………

सारे झगड़े मिटा दिये
हाँ प्रेम तत्व है पाया
भाव साक्षी पाकर के
खेल माया का समझ है आया
हो निर्मल मन निरोगी काय…….

कर दिया ख़ुदको समर्पित
माँ से है सब कुछ पाया
हो निर्मल मन निरोगी काया
सहज योग जिसने अपनाया

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30 MAR AT 16:50

आया मास चैत्र का पावन, ख़ूब सजा है दरबार
आई जगत में माँ जगदंबा , होकर सिंह पे सवार
…………………. रे मैया होकर सिंह पे सवार

भक्तों का लग रहा है ताँता, करना तुम उद्धार
शीश झुका के चरण में तेरे, नमन है बारंबार
…………………… … रे मैया नमन है बारंबार

रणचण्डी माँ दुर्गा काली, तू जग की तारणहार
दुष्टों का संहार किया तूने , लेके खड्ग तलवार
………………….. रे मैया लेके खड़्ग तलवार

मैं भी हूँ माँ तेरे शरण में, खड़ा हूँ तेरे द्वार हाँ मैया
दुषभावों से रक्षा करना , बस यही है मेरी पुकार
…………………….. रे मैया यही है मेरी पुकार

बड़ा विकट समय है आया , मचा है हाहाकर
देके माँ क्षमा की शक्ति, करना तुम ही पार
…………………… रे मैया करना तुम ही पार

हे जगदंबा मात भवानी, तेरी जय जयकार
रहे प्रेममय जगत ये सारा, ना करे कोई वार
………………….. रे मैया अब ना कोई वार

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14 MAR AT 14:56

रंगों का है उत्सव आया , नव ऋतु ले रही भोर
पतझड़ भी है गुज़र गया, धरा हुई आत्मविभोर

दिल में है प्रेम उमंग, छाया ढोल मृदंग का शोर
मुस्कान खिली हर मुख पे, मस्ती छाई चहुँ ओर

बैर भाव सब मिट गए, है उल्लास उमंग हर ओर
होली की पावन अग्नि में, पिघल गए चित्त कठोर

पिचकारी चली जोर से, गलियाँ रंग से सराबोर
फाग उड़ाये गोपियाँ , नाचे माधव नन्दकिशोर

प्रेमरस की बहती धारा, चले फागुन गीत का दौर
हुआ तन सतरंगी मन सतरंगी ,हाँ होली का है शोर


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13 MAR AT 7:36

अबकी होली में भस्म कर दे मन के समस्त विकार
प्रेम के रंग में सबको रंग दे ,कर दो खुशियों की बौछार
पूर्ण प्रेम से होली खेले और गाये फाल्गुन के मल्हार।
आया रंगो का त्योहार, रे आया रंगो का त्योहार।।

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8 MAR AT 15:16

स्त्री प्रारंभ है सृष्टि का,
शक्ति है विश्व कल्याण की
स्त्री बिना परिकल्पना नहीं
इक बेहतर संसार की

सिर्फ वस्तु नहीं उपभोग की
सिर्फ स्त्रोत नहीं सृजन का
ये रोशनी है समस्त संसार की
स्त्री बिना परिकल्पना नहीं
इक बेहतर संसार की

पतित नहीं, अबला नहीं
सिर्फ सौंदर्य का पर्याय नहीं
ये गरिमा है हर श्रेष्ठ समाज की
स्त्री बिना परिकल्पना नहीं
इक बेहतर संसार की

आरंभ भी है और अंत भी
स्वधा भी सावित्री भी
स्त्री बिना संभव नहीं
कोई पूजा प्रतिष्ठान की
स्त्री बिना परिकल्पना नहीं
एक बेहतर संसार की

स्त्री ही आधार है,स्त्री ही उपहार भी
कृपया संज्ञा न दे इनको उपहास की
स्त्री बिना परिकल्पना नहीं
इक बेहतर संसार की ।।

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2 FEB AT 17:27


ऋतुराज आया है मनोहर, धरती पे छाई है रौनक़
मन बसंती हो गया है , माँ शारदे का रूप है मोहक

ऋतु शरद की आई विदाई, धरती माँ ले रही अंगड़ाई
पतझड़ का अब रुका सिलसिला, क्षितिज उत्तरायण सूर्य चल पड़ा

है पीतवर्ण शृंगार् धरा का, माँ शारदे ज्ञान प्रभा का
हस्त सुशोभित वीणा माँ के , ह्रदय प्रफुल्लित हुआ धरा का

वस्त्र पीताम्बरी किये है धारण, नव कोपल से करते स्वागत
माँ दे दो सृजन ज्ञान का अमृत, सयंम विवेक से हो पूर्ण मनोरथ

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28 JAN AT 22:27

अमर गाथा
मातृभूमि की खातिर , हाँ कुछ भी कर जाऊँगा
रहा अब तक था बेनामी , शान वतन की बढ़ाऊँगा
बनके काल रिपुदल का, पताका तिरंगा फहराऊँगा
हूँ लाल इस माटी का , हाँ माटी का कर्ज चुकाऊँगा

जला के अचल दीप शौर्य का, हरपल मुस्काऊँगा
हैं देह वज्र ,प्रण अटल, ना ख़ुदको रोक पाऊँगा
बहुत हुई हस्ती मेरी, अब काम वतन के आऊंगा
हूँ लाल इस माटी का , हाँ माटी का कर्ज चुकाऊँगा

ए वतन की सौंधी सी मिट्टी, गुणगान तेरा ही गाऊँगा
हुँकार लगा के समर यज्ञ में, आहुति देता जाऊँगा
सुन हिंद की ए ज़मी,मैं कहीं गया नहीं, मैं कहाँ जाऊँगा
हूँ लाल इस माटी का , हाँ माटी का कर्ज चुकाऊँगा

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