होते रहे हैं शव बरामद कहो किस किस के दुखड़े पर रोए हम..
खत्म कर दिए हमने जज़्बात अपने इक यही शोक काफी है..-
कुछ सही में अच्छा लगे तो ही like, comment और share वगेरह कीजियेगा और को... read more
खत्म हो गए हैं विचार मेरे?
या लिखने का मेरा शौक मर चुका है..?
व्यस्त है मेरा जिस्म कहीं?
या मेरी रूह पर से यह निशान मिट चुका है..?
कहाँ किस सोच में जी रहा हूं?
हुनर कभी था भी या जितना जिया सब लिख चुका हूं..?
किस्से जो कभी सुनाए नहीं क्या उन्हें भूल चुका हूं?
या खाली दिमाग की कहानियां भुलाकर कहीं उलझ चुका हूं..?
ढूंढ भी रहा हूं या नहीं मैं किरदार अपना..?
या अपनी ही कहानी का भुला बिसरा गीत बन चुका हूं..?-
कई सोचते हैं
दुनिया बदलने का..
परन्तु कितने हैं
जो खुद को भी बदल पाते हैं?
विचारों का सामंजस्य
आचरणों से होना है ज़रूरी..
यह बात समझ कर
कितने लोग निभा पाते हैं?-
हर कोई बस अपने ही खयाल बुनता है..
यहां दीवारों के कान हो या ना हो..
पर कान वाला अक्सर अपना नफा - नुकसान चुनता है..-
सोचने वालों ने सोचा बहुत
किया सब करने वालों ने
सोचने वाले सोचते रहे तौर तरीके अपने
दुनिया बदल डाली बदलने वालों ने..
ऐसी क्यों है, वैसी क्यों है में समय ना गंवाओ..
कर्म करो और जैसी चाहते हो वैसी दुनिया बनाओ..-
वक़्त बेवक़्त वक़्त पर बात करते हैं..
ये बात करने वाले हर वक़्त, वक़्त बर्बाद करते हैं..-
पहली बार जब मैं उनसे मिला तो मैं उनसे अंजान था, पर वे बखूबी जानते थे मुझे। वे करीब थे मेरे कितना ये मैं जानता ना था, पर वे बहुत पहले से पहचानते थे मुझे। धीरे धीरे मैं उनके करीब, और करीब होता गया, पहले सोचता था उनके बारे में दिन में ही, फिर वे ख्वाबों में भी आते गए। और फिर वह दिन आया जब हम इतने करीब आ गए कि हम एक ही हो गए और फिर, फिर कोई और आ गया मेरी जिंदगी में जिसने हमारे बीच फासलों की दीवार खड़ी कर दी मुझसे नजदीकियां बढ़ा कर। इससे तो बेहतर होता कि किसी इंसान को मैं हमसफर करता, क्योंकि विचारों को हमसफर करने का मतलब है अनगिनत हिस्सेदारियां।
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कितना नगण्य होता है मनुष्य इस विराट ब्रह्मांड के समक्ष, फिर भी अपने दंभ में स्वयं को महान बताने में नहीं चूकता.. यह भ्रम होता है उसे अपने अंतर में निहित उसी ब्रह्म के कारण जो स्वयं ही ब्रह्मांड स्वरूप है। परन्तु अपनी विराटता को निजस्वरूप में उद्घाटित करने की जगह वह बाह्य पदार्थों में ही उलझ कर सीमित होता चला जाता है और इस क्षण भंगुर जीवन में ऐसे फंसता है जैसे कोई मकड़ी अपने जाले को बुनकर उस जाल को ही अपना सर्वस्व मान लेती है और उसी में अपना जीवन खपा देती है।
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कुछ सोच कर लिखा तो क्या लिखा..
भाव विहीन शब्दों से क्या कविता होती है?
या कोई लेख लिखे जा सकते हैं?
चाहे प्रेम हो, चाहे घृणा हो,
चाहे प्रकृति हो या हो चाहे सुविचार..
सब कुछ तो भाव से ही उत्पन्न होता है..
और जो भाव से उत्पन्न नहीं होता, वह कुछ नहीं होता..
भाव विहीनता भी एक भाव ही है,
अभाव का भाव।
जो किसी भी ओर हो सकता है,
लिखने वाले में भी और पढ़ने वाले में भी।-