प्रश्न चिन्ह है ,
ईश्वर की
मानवीय रचना पर।
यक़ीन मानो ,
मानव की ईश्वरीय रचना
स्वयं में पूर्ण विराम है।
क्यूँकि , ईश्वर
भय , जिज्ञासा और
मानवीय कल्पना
का प्रतिबिंब है।
~किशोरी हिमांशी
{१२/११/२२}
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कभी बहती, कभी झुकती
कभी रेत बन बिखर जाती हूँ
नदी हूँ मैं.....
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वो दिल पे रखा पत्थर इक झटके में पिघल जाता है ,
उसकी याद में तपन बहुत है।
~किशोरी हिमांशी
३०-०१-२०२२— % &-
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जो कहते हैं कि ,
दूरियां प्रेम को कम नहीं करतीं ।
दरसल वे लोग यथार्थ से दूर भागकर, कविताओं से छल करते हैं।
जिनका भी प्रेम सैंकड़ों-हजारों किलोमीटर कहीं दूर है उनसे जाकर पूछिए!
"कि कैसे ये दूरियां रास्तों से होकर हृदयों तक आ जाती हैं।"
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~किशोरी हिमांशी
१९-०१-२०२२-
वो हर रोज मेरे नए घर पर
अनन्त से उतरकर खिड़की पर
विभास बन दस्तक देने आता है।
मैं कर लेती हूँ खिड़की बंद
लगाकर ओट करती हूँ चाकचौबंद
लेकिन वो स्थिर कहीं ना जाता है।
अविचल अपने पथ पर खड़ा
कर्तव्य से जैसे, ना हो कभी मुड़ा
यह देख रगो में स्फूर्ति का संचार उमड़ आता है।
देख अडिग संकल्पशील प्रेममय
ना होता विचलित, है बस तन्मय
सहसा मन में उसके प्रति दुरावार जग जाता है।
कांतिमय दैदिव्यमान उसका तेज
भुजबल से प्रतीत होता, है जैसे रुद्रतेज
मोहिनी सी छटा बाँधे, मुझको मोहित कर जाता है।
करजोर कर रहा जुहार
बन सहज कह रहा,बनो अनुहार
सुन वेणु सदृश्य वचन, मन प्रफुल्लित हो जाता है।
नेत्रों में उत्पन्न हुई एक विभा यकायक
देह मानो बन गयी उसी की एकक
ओट अब मन की खिड़की से भी हट जाता है।
अब हर रोज अनन्त से उतरकर
थाह से अचला की निकलकर
संग मुझे स्वयं की अतलस्पर्शी में ले जाता है।-
हमारे समाज की
सबसे बढ़ी विडंबना है की
हम अपनी रीतियों को
कुरीतियों में बदल देते हैं,
"राम नाम सत्य है"
ये तो सभी जानते हैं
लेकिन बस शव यात्रा में ही
ये सत्य दोहरा सकते हैं।
तो क्या अन्य शुभ या
सामान्य समय में बोलने पर
"राम नाम असत्य हो जाता है" !!!
॥जो शाश्वत सत्य है
वो तो हर परिस्थति में
कहा सकता है,
गाया जा सकता है॥-
॥ कैवल्य ॥
कैवल्य के लिए वन में जाकर तपस्या कि आवश्यकता है क्या?
जब दाना ले जाती चीटियों कि लंबी कतार ही जीवन कि वास्तविकता बता जाती हैं।
कितना सा जीवन होता है उनका ,हम गलती से एक ऊंगली भी रख दें तो समाप्त !!!
लेकिन फिर भी लगी रहती हैं मिट्टी का घर बनाने ,दाना ढोने में।
हम भी तो यही कर रहे हैं ना ????-
ना तू मेरी आदत है ना चाहत !
बस उन्हें याद कर ,तुझे अपने होठों तक ले आती हूँ।
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कौन था वो शख्स और कहाँ गया...?
जाने से जिसके खालीपन सा लगता है !
उस शख्स से अनजान , शख्सियत से उसकी वाकिफ !
क्यूँ उसका इस कदर चले जाना मुझे अंदर तक चुभता है... ?
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जी छोड़िए भी अब तारों की राह !
आपके लिए तो सारा आसमान बाकी है
जुगनुओं से भी क्या दिल्लगी करना,
जब चाँद से ही आपकी पहचान काफी है।-
इक बवंडर जो मुझे उड़ा ले जाना चाह रहा,
कोई तो आए बजन रखे रूहानी मुहब्बत का,-