कुछ दिनों से कलम ये मेरी
बैठी थी हड़ताल पे
जब पूछा कि "ऐसा क्यों"
तो बोली-
अब तेरा ध्यान जवाब पे नहीं,
है बस सवाल पे।
"कौनसा जवाब"?
"फिर वही सवाल"
मैं चुप होकर सुनने लगी,
वो बोलती गयी फ़िर बिना ख़याल-
जो आंखों को दिखता है,
उसके पिंजरे से खुदको निकाल,
बंद आंखों से एक दिन
दुनिया का तमाशा देख डाल।
अल्फ़ाज़ सुनना जो छोड़ देगी,
तो ये सीख पाएगी-
की खामोशियों में हैं छिपे किस्से हज़ार,
और मुँह से बोल कर चलते हैं केवल व्यापार।
मन की आँखों से देख ये दुनिया,
दो पल में समझ जाएगी है कौन अपना।
रूहों की आवाज़ सुन,
खामोशियाँ गूंज जायेंगी,
फिर मुँह से निकले लफ़्ज़ों पर
तुझे भी हंसी आयेगी।
ये सब जब करेगी,
कविता फिर कलम से बहेगी।
फिर खत्म हो जाएंगे दोनों-
एक तेरे सवाल, और एक मेरी हड़ताल।
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