Himangi Tiwari  
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CA Final, Musician at heart, Writer at soul
Joined 4 September 2017


CA Final, Musician at heart, Writer at soul
Joined 4 September 2017
22 JUL 2021 AT 23:27

अबके जो टूटे हैं तो यूँ न होगा कि बिख़र जाएँगे,
लफ़्ज़ों का सहारा ढूंढेंगे या ग़ज़ले लिख पाएंगे।
अब तो हुए हैं खामोश कुछ यूँ,
कि खुदकी ही याद सताती है।

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22 JAN 2021 AT 2:39

हम ख़ुद भी बदल गये और उन्हें भी बदलने दिया।
न फिर कभी जवाब मांगा, न फिर कभी सवाल किया।

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3 DEC 2019 AT 22:16

मैंने कितने रंगों के अल्फाज़ घोल डाले,
जो निकले तो ये अश्क़ बेरंग
कुछ स्याह सी ख़ौफ़ की रातें थीं
बीत न सकीं तो निकले ये अश्क़ बेरंग..
कुछ मख़मली से ख़्वाबों के पूरे होने की उम्मीद,
जब आयी तो फिर बह चले- ख़ुशी के- ये अश्क़ बेरंग..
एक दर्द की दास्ताँ सुनी थी किसी की,
उसे अपना बना बैठी, और अब जब भी याद करूँ,
फिर आँखों से निकल पड़ते हैं ये अश्क़ बेरंग..
इश्क़ के लाल, खौफ के काले,
हिज्र के अंधेरों से या वस्ल के से उजाले..
जो ये दिखते हैं अश्क़ बेरंग,
उनमें मैंने कितने ही रंगों के जज़्बात घोल डाले...

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29 OCT 2019 AT 20:58

मुखौटों से भरी दुनिया में,
तुम चेहरा अपना सबको न दिखाना
जो मुस्कान पे तेरी मरता है,
उसके सामने अश्क़ सोच कर ही बहाना।
हाँ वो उदास होगा कि आँखों में तेरी अश्क़ हैं।
मगर मसला हर दफ़ा उसकी उदासी नहीं।
मसला कभी ये भीे है,
कि मुखौटों से भरी दुनिया में,
तुम नहीं जानते कौन हक़दार है
उस दर्द का तुम्हारे,
और कितने ही अश्क़ सूख चले,
बस इसी डर में कि अब उन्हें किसी के सामने बाहर आना होगा।
तो तुम अपने दर्द को अंदर न दबाना,
बस.... मुखौटों से भरी दुनिया में..
चेहरा अपना सबको न दिखाना

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29 OCT 2019 AT 12:22

कुछ अनकहे अरमानों की झील है मेरी आँखों में,
जिसे ख़ामोशियों की रेत से सुखाने में अक्सर लगी रहती हूँ।

"अनकहे" अरमान हैं तो खामोशी से क्यों सूखेंगे?
-क्योंकि बोल देती तो शायद आँखों से बह निकलते।
और आँखों से बहा पानी झील को फिर भर देता-
कुछ नए अरमान संजोने का हौसला देता।
"तो अब तक सूखी कैसे नहीं ये झील?"
- क्योंकि रुह में मेरी तुम्हारे प्यार का 'समुंदर' है।
और भला आज तक कौनसी रेत समुंदर को सुखा पायी है?

सुना था क़िस्सों कहानियों गीतों में मैंने-
कि रुह से रूह के दरमियाँ,
होते हैं इश्क़ के जहाँ।
तो बस- समेटे चलती हूँ उस अनकहे अरमानों की झील को-
कि किसी दिन इश्क़ के जहाँ में टकराएंगे।
और उस दिन, खामोशियाँ न होंगी- बेबाक़ से बोल होंगे।
मगर तब तक,
कुछ अनकहे अरमानों की झील है मेरी आँखों में।

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17 OCT 2019 AT 15:15

शुक्र करें हम इंसाँ ख़ामोशियों का,
वरना बातें जो निकलतीं तो दूर तलक जातीं

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6 OCT 2019 AT 13:34

बरसात के दिलकश होने से तो ज़्यादा वाकिफ़ियत नहीं मेरी,
मगर हाँ आसमान से बरसता पानी अश्क़ों को बड़ा लाज़मी सा बना जाता है।

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10 SEP 2019 AT 13:32

कुछ दिनों से कलम ये मेरी
बैठी थी हड़ताल पे
जब पूछा कि "ऐसा क्यों"
तो बोली-
अब तेरा ध्यान जवाब पे नहीं,
है बस सवाल पे।
"कौनसा जवाब"?
"फिर वही सवाल"
मैं चुप होकर सुनने लगी,
वो बोलती गयी फ़िर बिना ख़याल-

जो आंखों को दिखता है,
उसके पिंजरे से खुदको निकाल,
बंद आंखों से एक दिन
दुनिया का तमाशा देख डाल।
अल्फ़ाज़ सुनना जो छोड़ देगी,
तो ये सीख पाएगी-
की खामोशियों में हैं छिपे किस्से हज़ार,
और मुँह से बोल कर चलते हैं केवल व्यापार।
मन की आँखों से देख ये दुनिया,
दो पल में समझ जाएगी है कौन अपना।
रूहों की आवाज़ सुन,
खामोशियाँ गूंज जायेंगी,
फिर मुँह से निकले लफ़्ज़ों पर
तुझे भी हंसी आयेगी।
ये सब जब करेगी,
कविता फिर कलम से बहेगी।
फिर खत्म हो जाएंगे दोनों-
एक तेरे सवाल, और एक मेरी हड़ताल।

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18 AUG 2019 AT 20:21

थोड़ा बादल और थोड़ा सा पानी,
इन्हीं दोनों में बसी दो नैनों की कहानी

सावन के भीगे दिनों के सामान
पतझड़ में गिरे पत्तों के निशान

इन सबको हमने महसूस किया
जिसे आँखों से न देखा उसे दिल से छू लिया

ये मुमकिन हुआ क्योंकि आप रहे गुलज़ार साहब।

हाँ, आप हैं तो
ज़िन्दगी को "इजाज़त" है कि वो "गुलज़ार" है

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17 AUG 2019 AT 13:18

एक "मयकश" की महफ़िल में
हमने नज़्में जो पढ़ीं,
वो बन बैठा शायर
और हम- आहें भरते उसके हमनशीं

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