आजकल सारे घर वाले
आओ-आओ कर रहे हैं
चिंटू के दादा जी छत पर
काओं-काओं कर रहें हैं।
संपूर्ण कैप्शन में पढ़ें।-
Insta- @_nazariyaaa
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हे स्त्री तुम जैसी थी वैसी ही रह गई,
तुम्हें ज़रा भी बदलना न आया,
सरकारें बदलकर भ्रष्ट हो गई,
कुछ पुरुष की नस्ल भी बष्ट हो गई,
और जाति-धर्म की हवा में,
जनता भी सारी मस्त हो गई,
पर तुम तो ना सीखीं बदलना,
और क्यों तुम सारा कष्ट सह गई?-
जन्म से मेरा नसीब
लंगड़ा था लंगडा ही आया,
कर्म की बैसाखी बिन
इसको चलना ही ना आया!-
अम्न-ए-आलम अब ना रहा मिरे देश में।
मैं बड़ा मैं बड़ा आदमी है गिरा इस द्वेष में।।-
अम्न-ए-आलम अब ना रहा मेरे देश में।
मैं बड़ा मैं बड़ा आदमी है गिरा इस द्वेष में।।
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अगर यह समाज औरतों को प्रताड़ित
और उकसाने के लिए न करें विवश।
तो यक़ीन मानिए,
नहीं है उन्हें आवश्यकता कोई
और ना ही कोई गरज
पाने की कोई औपचारिक तिथि
या कोई महिला दिवस!
हेमंत राय।
@_nazariyaaa-
आज भी मै रह जाती भूखी,
गर, बीती रात तुम्हारी रोटी कचरे से ना,
जो नसीब होती।-
ख़ाब एक मिरा पूरा ये ‘कभी’ न हो पाया।
आदमी हुआ उसका ‘आदमी’ न हो पाया।।
प्यार क्या किया वो मुहब्बत रूहदारी¹ थी
फिर भी मैं कभी ‘शौहर-कागज़ी’² न हो पाया।
इश्क में यु तो लड़ना भी बुरा नहीं होता,
पर नसीब अपना झगड़ा ‘आपसी’ न हो पाया।
मंजिले नहीं होती है सफ़र बिना हासिल
मंज़िल-ए-सफ़र मेरा ‘आख़िरी’ न हो पाया।
लौटना तिरी फ़ितरत थी मुझे पता था ‘हेमंत’
पर पनाह से उसके ‘वापसी’ न हो पाया।
वज़्न- 212 1222 212 1222
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