एक शाम
तेरी यादो की गठरी बांध के अलमारी के छज्जे पर रख दी,
ना वो मुझे देखे ना मै उसे देख शकुं,
वो बरसाती शाम में गठरी कुछ ज्यादा ही गीली लगने लगी थी,
पता नही बारीश की कुछ बूंदे उस पर गीरी थी या फीर,
आंख के समुंदर में नहां के आई थी,
उसे मेने कुछ इस तरह अपने आप से दूर रख्खा था की,
वो वक्त बेवक्त मचला ना करे,
पर ये तो यादों की गठरी थी उसका तो अपने आप पे भी बस कहां! जो वो मेरी बात मानती!
छीपती छीपाती एक शाम वो सामने आ ही गई,
और मैं अश्क के समुंदर मेम नहां के आ गई.
हेमांगी-
7 SEP 2020 AT 17:23