एक आखरी ख़्त जो लिखा तो गया ,
पर कभी "उस" पते तक नहीं पहोच पाया जहां कभी ख़्तो की बारीश हुआ करती थी,
बहोत कुछ लिखा था उस ख़्त में,
कुछ भावनाओ को भी साथ में भेज़ना चाहा था,
पर शायद,
हाँ शायद भावनांओ को पढ़ने वाली "वो" निग़ाहे शायद अब धूंधली सी हो रही थी,
शायद अब उन निग़ाहो को इन्त्ज़ार भी नही रहां ,
वक्त की करवट़ के साथ ही वो आखरी ख़्त भी एक वक्त बन गयां,
अनकहा,अनपढा़.
हेमांगी
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