Harvinder Bhardwaj   (हरविंद्र भारद्वाज 'शान')
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Defence
Hospital Operations
Respect for life
Joined 27 August 2017


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31 MAY AT 14:20

ये ग़ज़ल बहर मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
(122 122 122 122) में लिखी गई है।

मैं सच बोलता हूँ सदा, यही साथ मेरा निभाएगा।
अंधेरे में जो चरागाँ है, वही राह मेरी दिखाएगा।

जो झूठा है, वो आज चाहे ज़माने को भरमाएगा,
मगर कल को वो गर्द बनकर ही मंज़िल से मिट जाएगा।

न हो खौफ़ तूफ़ान से, अगर दिल में सच की सदा है,
ये दरिया नहीं डूबने देगा, कश्ती को वो ही बचाएगा।

वो इंसान जो हक़ पे चलता है, तुफ़ां भी झुक जाएगा,
वही वक़्त की रेत पर आख़िर अपने निशां सजायेगा।

‘शान’ झूठ को लोग जितना भी ऊँचाई पर ले जाएँ,
वो गिरकर ही दम लेगा, सच को ही ऊपर उठाएगा।

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31 MAY AT 11:39

सच बोलता हूँ मैं इसलिए कि सच ही साथ निभाएगा।
जमाना तुम्हे याद रखेगा ‘शान’ झूठों को भूल जाएगा।

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7 MAY AT 13:13

मुझे ग़लत समझते हो समझते रहो।
घड़ी घड़ी बदलते हो बदलते रहो।

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4 MAY AT 11:07

इज्ज़त लेने का शऊर भी यूँ हर किसी को आता नहीं।
ज़हर फ़ैल जाए नफ़रत का तो आसानी से जाता नहीं।

तेरे हालात का जायजा तुझे ही तो लेना होगा बार बार,
आज सच्चा दोस्त भी बिना पूछे किसी को बताता नहीं।

आगाह किया था मैंने तो कितनी बार तुझे कि तू संभल,
आके हाथ ओ ज़ुबान तो तेरा मुझ से पकड़ा जाता नहीं।

क्यूँ किसी और के बहकावे में आके ले ली बदगुमानियाँ,
जबकि मालूम है तुझे के अच्छा बुरा पहचाना जाता नहीं।

किस बहाने से मिलने आयें तुझ से अगर आना भी चाहे,
मुफ़्त में ज़िल्लत लेने कोई कभी किसी घर जाता नहीं।


मुझ से नहीं संभलेगी झूठों की सरदारी किसी भी हालत,
मुझे ख़ुद मालूम है कि ‘शान’ मुद्दों से बात भटकाता नहीं।

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3 MAY AT 22:27

मेरी दास्तान ए मोहब्बत सर ए राह सुनाऊँ क्यूँ?
जो है दरमियाँ अपने और किसी को बताऊँ क्यूँ?

क्यूँ ज़िद्द करते हो मेरे ज़ख्म तुम देखने के लिए,
तेरे सिवाय मैं किसी और से मरहम लगवाऊँ क्यूँ?

वो टैटू जो बनवाया था तेरी आँखो के सामने मैंने,
किसे और के कहने से आख़िर उसे मिटवाऊँ क्यूँ?

पाक मुहब्बत मयस्सर होती है मुक़द्दर वालों को,
कोई कहे तो भी उसे ‘शान’ से रूबरू कराऊँ क्यूँ?

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3 MAY AT 12:22

आदमी ख़राब नहीं वो समझाया तो था।
सारे जमाने ने उस पे सितम ढाया तो था।

तूने ही कोई तवज्जो न दी मुझे आने पर,
तेरी तलाश में तेरे शहर मैं आया तो था।

इशारों को गर तुम न समझो तो क्या करें?
मुहब्बत है तुम से इशारों में बताया तो था।

अब क्यूँ आने लगे हैं ख़त ए मुहब्बत यहाँ?
अब यहाँ नहीं रहता ये बोर्ड लगाया तो था।

क्या अब उन्ही चराग़ो का ज़िक्र है जिनसे,
ख़त ए मुहब्बत ख़ुद तुमने जलाया तो था।

गैरतमंद है इसलिए शायद न आया होगा,
हालाँकि तेरा वास्ता देकर बुलाया तो था।

मालूम था कि ये मुमकिन नहीं इस दौर में,
फ़िर भी ‘शान’ ने अपना हक़ जताया तो था।

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1 MAY AT 22:34

ज़ाहिर-ओ-मौजूद हूँ तू जबकि मेरे सामने मेरे साथ यहाँ?
फ़िर और मुहब्बत क्या चीज़ हुई? क्यूँ चाहिए जन्नत मुझे?

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30 APR AT 12:41

मुझे तो न जाने क्यूँ और कैसे इल्म हो गया,
तुम्हें भी कुछ अक्ल मिले तो शायद बात बने।

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27 APR AT 23:34

मुलाक़त से आगे कुछ ही कदम चले होंगे हम कि,
मुक़द्दर बादशाह ने अपना फ़तवा जारी कर दिया।

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27 APR AT 13:47

तेरा इंतज़ार अपनी जगह है मेरी वज़ाहत अपनी जगह,
मुनासिब यही रहेगा कि दोनों दोनों में मशगूल रहते रहें।

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