Harshita Yadav   (हर्षिता की कलम)
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🏣 deoria, UP
Joined 1 November 2017


🏣 deoria, UP
Joined 1 November 2017
28 SEP 2018 AT 10:36

लड़खड़ाए थे जो थोड़े से कदम
आज खुद को लंगड़ा मैंने बना डाला ।

रौशन थी जो जिंदगी अपनी
उसे अंधेरे से भी काला बना डाला।

सजाई थी माँग जो मैंने तारों से
उसे जीते जी खुद ही बेवा बना डाला ।

खिलती थी कभी जो मुस्कान नाम पर ही मेरे
पहचान छुपाने पर आज मज़बूर उसे मैंने कर डाला।

भली थी क्या खूब ज़िन्दगी भी अपनी
उसे खुद के ही भेंट मैंने चढ़ा डाला ।

सुना था दर्द की दवा होती है तो
मयखाने को अपना असियाना ही बना डाला।

नशे मे डूबा रहा और नाश का रास्त अपना डाला
खुद की पहचान को खुद ही मैंने शराबी बना डाला।।

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26 JUL 2018 AT 11:19

ये मोहब्बत का रिवाज भी अज़ीब है।
जब रंगना होता है एक दूसरे के रंग में
तो धरा को भी भीगा देता है।

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19 JUL 2018 AT 21:21

आसमान ने बरसना यूहीं नही कम किया है,
जल जाता है देख वो नन्ही सी आँखों में इतना पानी।

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19 JUL 2018 AT 17:52

लाख स्वच्छ हो तुम पर कभी साफ नज़र नहीं आओगे
अगर देखी है अपनी सूरत तुमने एक दागी आईने में।

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7 JUL 2018 AT 18:50

कितनी बेहया होती है ना ये जमीन भी
जो रेत मतलबी हवाओं के संग बह चली थी
आँधियों के खत्म होते ही पुनः उसे वो अपना कैसे लेती है।।

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2 JUL 2018 AT 21:20

बन जाओ तुम श्याम मेरे ,
तुम्हारी राधा मैं बन जाऊँ।
प्रेम रस के प्याले में तुम्हारे
रोम रोम मैं भीग जाऊँ।
श्रृंगार बन जाओ मेरे तुम,
दर्पण मैं तुम्हे बनाऊँ।
सँवार दो उँगलियों से जुल्फ़ें मेरी,
तुम्हारे साँसों के इत्र से मैं नहाऊं
नैनों से नैनों में सुरमा तुम लगाना,
मुट्ठी को तुम्हारी कलाई मैं अपनी दे जाऊँ।
लगा दो लाली लबों से तुम,
चरण धूल से तुम्हारे माथेे कुमकुम मैं लगाऊँ।
बाहों को तुम अपनी करधन बनाना,
मैं पैंजनिये सी छनक जाऊँ।
वस्त्रों को मुझे जरूरत क्या है
वस्त्र समझ तुम्हे मैं लपेट जाऊँ।
अपने नैनों के दर्पण खोलो श्याम
मैं तुमपे बलि बलिहारी जाऊँ।

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30 JUN 2018 AT 15:24

तुम्हारा होना छत की तरह था जो हर मौसम की मार सह जाता था।
अब तो एक मामूली सी बौछार भी हमें भीगा जाती है।

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21 JUN 2018 AT 23:48

भर चुकी है ये डायरी मेरी जिंदगानी से
लम्हे लम्हे, बित्ते बित्ते,जर्रे जर्रे की कहानी से।

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6 JUN 2018 AT 23:39

सुना था की मोहब्बत के बीजों में बड़ी ताकत होती है ,
जहाँ भी पड़े हरियाली आ जाती है।
लेकिन देखा है कुछ ऐसी बंजर सी जमीनों को
जो चुपके से अपने भीतर ही बीज को दबा जाती है।

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4 JUN 2018 AT 23:54

दख़ल देना किसी की ज़िन्दगी में तो उतनी ही देना की खलल ना पड़े,
वरना अगर खलल पड़ी तो सबसे पहले बेदखल तुम ही किये जाओगे।

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