हाय! ये सावन भी क्या ग़ज़ब ढा गया,
सुलगते रहे हम और ये धारा भीगा गया।।-
शायद! वक्त कोई चाल चल गया,
भीतर कुछ खिलते खिलते रह गया।
बनना था जिन्हें सदाबहार सा,
वो बस रातरानी बन के रह गया।।
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किसे पता है जिंदगी क्या गुल खिलाएगी,
आज हँसा रही कल जाने कितना रुलायेगी।
पल दो पल की उड़ान है उड़ लो पंछियों,
क्या पता कब हमारे पंख कतर ले जयेगी।।-
वो डोली भी मेरी अर्थी के समान थी
जब बापू ने अपना सर्वस्त्र गिरवी रख
अपने सपनो की कीमत चुकाई थी
मेरी डोली दहेज के कंधे पर उठाई थी
बारात नहीं जनाजा ही था वो
जो मेरा शरीर उठाये जा रहे थें
मेरा स्वाभिमान मेरी आत्मा तब ही फना हो गयी थी
जब मेरी मांग सौदे से लाल कराई गई थी
यूँही नहीं हुई थी मेरी मौत
कुचल के मारा गया था मेरे स्वाभिमान को।
छोटे छोटे ख्वाबो को देख कर
मैंने जो प्रेम की एक दुनिया सजाई थी
दहेज प्रेमी तेरे दहेज ने
मेरे अरमानो की एक चिता जलाई थी
घटना से पूर्व सबने मेरे मौत की एक साजिश रचाई थी
एक ने मोल भाव कर मेरी बोली लगाई थी
दूजे मेरे बापू ने खुशी खुशी मेरी कीमत चुकाई थी ।
आखिर मेरे इस मौत का जिम्मेदार कौन है?
आखिर मेरा गुनहगार कौन है?
-हर्षिता की कलम
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ज़िन्दगी भी बड़ी अलबेली होती है,
समझ आये तो सहेली,ना आये तो पहेली होती है।।-
मिलन की रस्में भी क्या खूब धा गयी,
पहले तपाया धरा को फिर बरसात हो गयी।।
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वक़्त गर चाहे तो आग को भी दरिया का पानी बना दे,
किसी की ख़ुशियों को किसी की बोझिल जिम्मेदारियाँ बना दे।।-
जब जब भी ठोकर लगती है,
मैं पत्थर सी हो जाती हूँ।
अंदर ही अंदर खूब चीखती चिल्लाती हूँ,
बाहर चुप मौन सी हो जाती हूँ।
नारी हूँ मैं बेचारी दुखियारी ही रह जाती हूँ।
डगर डगर लाश मैं अपनी ही बिछाती हूँ,
खुद के मज़ार पर खुद ही आँसू बहती हूँ।
ना आगे ही कुछ ना पाछे ही कुछ बस
आज आज के नाम की तसल्ली मन को दिलाती हूँ।
नारी हूँ मैं बेचारी दुखियारी ही रह जाती हूँ।
आँचल अपने फटे ही सही पर,
छाँव तुमको दिए जाती हूँ।
खुद के आँखियो को जगा जग कर
नींद भी तुमपर लूटती हूँ।
प्यार की चाहत में सब कुछ भूल जाती हूँ,
तड़प होती है एक उदासी भी जब जब
पहचान से मैं बस एक नारी ही रह जाती हूँ।
नारी हूँ मैं बेचारी दुखियारी ही रह जाती हूँ।।
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