शहर से बाहर निकलती सड़कें ढोती हैं सपने.. शहर छूट जाता है पीछे अधूरा... चीख नहीं सकता, बिना शिकायत निकाल कर रख देता है अपना कोई हिस्सा न जाने कितनी ख़्वाबों की हथेलियों पर...
न कोई लौट पाता है उन प्रतीक्षारत सड़कों पर वापस, न ही लौटा पाता है उसका वो हिस्सा, जो आज भी उम्मीद में हैं उन सपनों को चमकता देखने की...
अतीत में फंसा एक शहर समय में ठहरा हुआ, हर बार थोड़ा सा और बूढ़ा हुआ जान पड़ता है...
आख़िर कब तक भाग सकोगे? दुनिया की परिक्रमा कर वापस आना ही होगा तुम्हें.. ख़ुद से कोई कहां तक भाग सका है! शून्य के भंवर की तरंगें तुम्हें खींच लेंगी ख़ुद में.. कैसे बच पाओगे अपनी ही नज़रों से.. समय को, भला कौन पीछे छोड़ सका है.. जहां से तुमने शुरू किया था ठीक उसी जगह करना होगा खत्म, मंजिल बिलकुल वहीं है जहां तुमने उसे रख छोड़ा था..!!
नहीं जानना है मुझे तुम्हें.. क्योंकि तुम्हें ज़्यादा जानते जाना दूर करता जायेगा मुझे तुमसे.. तुम्हें पूरी तरह जान लेना आख़िरी दिन होगा तुम्हारे वजूद का! क्योंकि, उस दिन मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया होगा...!!
डर का कारोबार हैं जकड़े बेड़ियां हज़ार उसको खो देने का डर ही सींचे उसका प्यार सत्कर्मों का ध्येय नहीं प्रेरक है ना हो हार ईश प्रेम से बढ़कर है यह ईश कोप का भार भय के ताने बाने हैं ये कठपुतली के तार ऊपर बैठा तू क्या सोचे देख तेरा संसार हर मन में फल फूल रहा जो डर का कारोबार