इक तेरी ही चाहत में जानां हम पर क्या क्या गुज़रा
सदियां भी ऐसे गुज़री जैसे बस इक लम्हा गुज़रा
उस शब को देख रहा मैं इक अर्से तक हैरान रहा
जिसमें रातें तन्हा गुज़री, औ चंदा तन्हा गुज़रा
मेरे मन का बंज़रपन किसका यार नतीजा है
या तो सागर रीत गया या फिर मुझसे सहरा गुज़रा
उसको पत्थर चुनते देखा तो मुझको अहसास हुआ
पत्थर बचपन लील गया या फिर उसको अर्सा गुज़रा
उसका तर्पन करके सुन लो क्या मेरे हालात बने
वो दरिया में डूब गया या फिर मुझसे दरिया गुज़रा
अपने कल को देख रहा मैं कल को ये समझाता हूँ
आगे सब अच्छा होगा जो भी गुज़रा बढ़िया गुज़रा
'जौन' कशिश ने तेरी हम पर क्या जादू बिखराया है
ऊंचे ऊंचे शायर थे,पर जो गुज़रा अदना गुज़रा-
Being the word
Beloved with the words
दर्द मिरा आंसू बनने से मुकर गया
मैं भी देखो दिल से अपने मुकर गया
हम सागर के दम पर कश्ती में बैठे थे
सागर जानां बहते बहते मुकर गया
भूखे अपना मर्ज मिटाने पहुँचे थे
हाकिम अपना हसते हसते मुकर गया
यार वफ़ा का सौदा बस में मेरे नही
फिर मत कहना देखो कैसे मुकर गया
तुम क्या समझोगे यार मिरे हबीब को
अच्छा अच्छा कहते कहते मुकर गया
शाम नही निकली घर से बस इसीलिए
सूरज आधे रस्ते जा के मुकर गया
मन जिस पर पहली आस लगाए बैठा था
वो ही मुझसे सबसे पहले मुकर गया
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ये सारी नुमाइश सियाही में भर के
ग़ज़ल बन गई हैं उदासी निखर के
बहारों का मौसम भी पतझड़ में बदला
परिंदे जो सारे खफ़ा है शज़र के
ज़मीं से बिछड़ कर हुई सुर्ख आँखे
उदासी उफ़क पर यूँ आई उभर के
मुसाफ़िर मुसाफ़िर फिरे हैं यहाँ पर
नही है प साथी कुई भी सफर के
ये रंगों को अपने भुला के बनी शब
उतर जो चुके रंग सारे सहर के
हुनर ये मिरा तुम भी देखो तो यारों
ज़माने में खुश हूँ नज़र से उतर के
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वो साहिर सोने को जो बालू करते हैं
मिरे पर जैसे वो तो अब जादू करते हैं
अगर तू चाँद है तो मेरे किस मतलब का
जो मेरे घर को रौशन भी जुगनू करते है
मुदावे तो जहां के सारे मुझ पर फीके
असर जो मुझ पे अब तेरे आँसू करते हैं
बचा टेढ़ा ही न कोई अब कूचे में मेरे
जो सीधा अब यहाँ पर सब उल्लू करते हैं
भले ज़िंदा या मुर्दा हैं साथी जो लेटा
किसी की ही न पर्वा ये भालू करते हैं
शिकायत गुल ने की है महफ़िल में कुदरत की
तिरे लिक्खे हुए कागज़ खुशबू करते हैं
सफ़र मेरा शहर के रस्तों पर हैं जारी
मिरे पैरों को घर तेरे काबू करते हैं
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अगर तू चाँद है तो मेरे किस मतलब का
जो मेरे घर को रौशन भी जुगनू करते है
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अब समेटूं कहाँ कैसे किसे घर में
मैं तो टुकडों में बिखरा था मिरे घर में
माँ से रौशन समां ऐसा हुआ गोया
धूप बिखरी हो जैसे अंधेरे घर में
अब खटकते हैं हीरे जग को भी देखो
और पत्थर भी बैठा शीशे के घर में
भूख भी मर गई हैं बस इसी दुख पर
आग जलती है अब मुझसे सटे घर में
नूर गुम हो गया, गायब कशिश सारी
जब से आया मैं अपने शह्र के घर में
गूंज आवाज़ की कितनी उठी यानी
अब तो तन्हा है कितना वो बड़े घर में
तब्सिरा यूँ मुकम्मल हो मिरा खुद पे
कितने शीशे लगाए अब मैं ने घर में
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ये मिलने को तुझसे बहाने से निकला
मिरा दम भी इतने सलीके से निकला
घुटन से बिखर के ज़मीं में समाया
समंदर कभी जब सफीने से निकला
सुखन ही सुखन था जबां पर सभी के
वो मजमा जो उसके मुहल्ले से निकला
वो मरकज़ पे अपने सिमटता सिकुड़ता
ये सूरज था जब भी उजाले से निकला
मैं अश्कों में खुद को भिगोता बहाता
वो चहरा कभी जब फ़साने से निकला
सहर का ये सूरज भी तारों सा बिखरा
शिकस्ता कभी जो दरीचे से निकला
न लौटी खुशी फिर ज़रा भी कहीं पर
जो अपना बिछड़ कर घराने से निकला
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