Harsh Gaur   (मुन्तज़िर)
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Beyond the words
Being the word
Beloved with the words
Joined 22 December 2018


Beyond the words
Being the word
Beloved with the words
Joined 22 December 2018
31 MAY 2022 AT 11:25

इक तेरी ही चाहत में जानां हम पर क्या क्या गुज़रा
सदियां भी ऐसे गुज़री जैसे बस इक लम्हा गुज़रा

उस शब को देख रहा मैं इक अर्से तक हैरान रहा
जिसमें रातें तन्हा गुज़री, औ चंदा तन्हा गुज़रा

मेरे मन का बंज़रपन किसका यार नतीजा है
या तो सागर रीत गया या फिर मुझसे सहरा गुज़रा

उसको पत्थर चुनते देखा तो मुझको अहसास हुआ
पत्थर बचपन लील गया या फिर उसको अर्सा गुज़रा

उसका तर्पन करके सुन लो क्या मेरे हालात बने
वो दरिया में डूब गया या फिर मुझसे दरिया गुज़रा

अपने कल को देख रहा मैं कल को ये समझाता हूँ
आगे सब अच्छा होगा जो भी गुज़रा बढ़िया गुज़रा

'जौन' कशिश ने तेरी हम पर क्या जादू बिखराया है
ऊंचे ऊंचे शायर थे,पर जो गुज़रा अदना गुज़रा

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6 MAY 2022 AT 11:57

दर्द मिरा आंसू बनने से मुकर गया
मैं भी देखो दिल से अपने मुकर गया

हम सागर के दम पर कश्ती में बैठे थे
सागर जानां बहते बहते मुकर गया

भूखे अपना मर्ज मिटाने पहुँचे थे
हाकिम अपना हसते हसते मुकर गया

यार वफ़ा का सौदा बस में मेरे नही
फिर मत कहना देखो कैसे मुकर गया

तुम क्या समझोगे यार मिरे हबीब को
अच्छा अच्छा कहते कहते मुकर गया

शाम नही निकली घर से बस इसीलिए
सूरज आधे रस्ते जा के मुकर गया

मन जिस पर पहली आस लगाए बैठा था
वो ही मुझसे सबसे पहले मुकर गया


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27 MAR 2022 AT 10:52

ये सारी नुमाइश सियाही में भर के
ग़ज़ल बन गई हैं उदासी निखर के

बहारों का मौसम भी पतझड़ में बदला
परिंदे जो सारे खफ़ा है शज़र के

ज़मीं से बिछड़ कर हुई सुर्ख आँखे
उदासी उफ़क पर यूँ आई उभर के

मुसाफ़िर मुसाफ़िर फिरे हैं यहाँ पर
नही है प साथी कुई भी सफर के

ये रंगों को अपने भुला के बनी शब
उतर जो चुके रंग सारे सहर के

हुनर ये मिरा तुम भी देखो तो यारों
ज़माने में खुश हूँ नज़र से उतर के


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10 MAR 2022 AT 8:26

वो साहिर सोने को जो बालू करते हैं
मिरे पर जैसे वो तो अब जादू करते हैं

अगर तू चाँद है तो मेरे किस मतलब का
जो मेरे घर को रौशन भी जुगनू करते है

मुदावे तो जहां के सारे मुझ पर फीके
असर जो मुझ पे अब तेरे आँसू करते हैं

बचा टेढ़ा ही न कोई अब कूचे में मेरे
जो सीधा अब यहाँ पर सब उल्लू करते हैं

भले ज़िंदा या मुर्दा हैं साथी जो लेटा
किसी की ही न पर्वा ये भालू करते हैं

शिकायत गुल ने की है महफ़िल में कुदरत की
तिरे लिक्खे हुए कागज़ खुशबू करते हैं

सफ़र मेरा शहर के रस्तों पर हैं जारी
मिरे पैरों को घर तेरे काबू करते हैं

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9 MAR 2022 AT 17:07

अगर तू चाँद है तो मेरे किस मतलब का
जो मेरे घर को रौशन भी जुगनू करते है

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22 JAN 2022 AT 7:47

एक पत्र....

[अनुशीर्षक में पढ़े]

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26 NOV 2021 AT 17:54

अब समेटूं कहाँ कैसे किसे घर में
मैं तो टुकडों में बिखरा था मिरे घर में

माँ से रौशन समां ऐसा हुआ गोया
धूप बिखरी हो जैसे अंधेरे घर में

अब खटकते हैं हीरे जग को भी देखो
और पत्थर भी बैठा शीशे के घर में

भूख भी मर गई हैं बस इसी दुख पर
आग जलती है अब मुझसे सटे घर में

नूर गुम हो गया, गायब कशिश सारी
जब से आया मैं अपने शह्र के घर में

गूंज आवाज़ की कितनी उठी यानी
अब तो तन्हा है कितना वो बड़े घर में

तब्सिरा यूँ मुकम्मल हो मिरा खुद पे
कितने शीशे लगाए अब मैं ने घर में


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21 MAR 2019 AT 20:39

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2 JAN 2022 AT 13:56

ये मिलने को तुझसे बहाने से निकला
मिरा दम भी इतने सलीके से निकला

घुटन से बिखर के ज़मीं में समाया
समंदर कभी जब सफीने से निकला

सुखन ही सुखन था जबां पर सभी के
वो मजमा जो उसके मुहल्ले से निकला

वो मरकज़ पे अपने सिमटता सिकुड़ता
ये सूरज था जब भी उजाले से निकला

मैं अश्कों में खुद को भिगोता बहाता
वो चहरा कभी जब फ़साने से निकला

सहर का ये सूरज भी तारों सा बिखरा
शिकस्ता कभी जो दरीचे से निकला

न लौटी खुशी फिर ज़रा भी कहीं पर
जो अपना बिछड़ कर घराने से निकला

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21 DEC 2021 AT 17:59

घुटन से बिखर के ज़मीं में समाया
समंदर कभी जब सफीने से निकला

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