सींच रुधिर जल और लवण से बीज बना जो एक अणु,
लक्ष प्रहर, नित रोज़ जतन से सघन हुआ जो बीज तनु,
नव सृष्टि संकल्प लिए जो त्याग बीज का पादप करते,
उस निष्काम सुक्रत्य का ही तो पावन पवित सुनाम है अर्पण।
लाया कण कण भाप बना जो मेघ अंततः कहलाया,
लांघ हिमालय भी जो आया क्या उसने था धन पाया ?
जीवन को साकार रूप दे स्वयं लुप्त न हुआ कहो ?
निज अस्तित्व को स्वाहा कर गंगा बन जाना ही है अर्पण।
दो ऋतु का पुरूषार्थ हुआ, केवल दो मण धान खिला,
पांच थाल को अन्न मिला, एक उदर को नीर मिला,
कष्ट नही देते औरों को वट वृक्षों की कथा यही,
सब को खुद से आगे रख कर तब मुस्काना भी है अर्पण।
नमन उन्हें जो त्याग स्वयं का अंतिम अंश भी डिगे न हों,
नमन उन्हें भी नव रचना में नींव की ईंट जो बने अहो,
नमन उन्हें मीतप्रेम जिन्होंने प्रेम से बढ़ कर के आंका,
नमन मेरा प्रत्येक उसे जिसमे आया ये भाव यही कि
सब नश्वर, मेरा ना कुछ, अर्पित सब करना लक्ष्य यही,
निज अश्रु की व्यथा त्याग औरों की सुनना ही है अर्पण।
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हर क्षण एक नया ध्रुव उत्तर को पता मैं ... read more
*कैसी मीत मेरी...*
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एक डायरी जिसमे सब कुछ लिखा है,
बीता पल और आज कल, शायद सब छिपा है,
जो जानती समझती है मेरे हर अक्स-ओ-माइने हर तासीर मेरी,
मेरा हिस्सा है, मुझ सी ही है,या कहूं...
कि शब्द मैं.... तो वो गीत है मेरी....
कुछ ऐसी मीत है मेरी....-
व्यर्थ है वो हर श्वास जो ली हो परे तुम्हारे चरणों से,
व्यर्थ हुआ वह अंश जो अर्पण हुआ न तेरे मस्तक पे,
मिथ्या है वह वाक्य जहां वह बेल पत्र फ़ल कहलाया,
व्यर्थ ही था वह जीवन जो न शिव न्यौछावर हो पाया....
(Tap on the link to read full poem)-
कुछ याद भुला बिसरा तब आज नज़र यूं आया,
जब अक्स मेरा मुझसे ही एक सफ़र में मिलने आया।
कुछ बात बयां की उसने... मैने भी तब कुछ सुनाया...
मैं हार बैठी खुद को जब वो मुझमें ही मुस्काया...
तू आज नज़र यूं आया....
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जाने कितनी हवाएं गुज़ारी है,
न जाने कितनी धूपें छानी हैं,
कितनी ही उंगलियों के निशानों ने
तुम पर अपनी बस्ती बना ली है..
राह देखी होगी ना माशुकाओं ने
तुम्हें जकड़ के हाथों मे,
औंस भी कुछ जमी होगी
तुम पर उन सर्द रातों में...
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रहना दुरुस्त बिलकुल की
अभी तो सदियां बितानी हैं,
ऐ जालियों तुम्हें अभी
और भी कहानियां बनानी हैं।-
प्रभुत्व हो तो कुछ ऐसा सा हो ,
ठीक इन सज्जन सा।
ऐसा की अनुमति चौखट से ही लौट जाए ,
अनुमोदन का अस्तित्व ही न मिले और
संकोच का मानो जन्म ही न हुआ हो।
अपने धर्म, अपनी प्रतिभा, अपने स्थान और
अपने हर अस्तित्व के अंश पर...
अधिकार ऐसा ही हो अन्यथा ना हो।
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अरसे से जिया तुम ही को है , तुम्हे ही दुआओं में पुकारा है,
पता है..... तुम्हे देख कर ही आईने में खुद को संवारा है,
कभी कहां हुआ कि दिन गुजर गया हो ऐसे ही,
अंधेरे से उजाले तक के हर एक रंग मे , मैंने तुझको ही निहारा है।
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रात के जगनूओं में जो रिमझिम चमकता है...मेरे सितारे... मेरी प्रेम की परिभाषा...इबारत हो ना...
तुम मेरी चाहत हो ना...!?
(Poem in caption)
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अल्हड़ घूमता गावों चौपालों में
न जाने क्या खोजता हूं ,
इन अजनबी आंखों में छिपी कुछ
खुशी और कुछ चमक खोजता हूं,
निकल पड़ता हूं यूं ही कि अब मंजिलों
की फ़िक्र किसे है,
यायावर बस चलता रहता हूं
आसमानों की छत लिए ,
कर रास्तों से दोस्ती मैं रोज़
नया सफर ढूंढ़ता हूं।
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तुम ठीक वही हो जगमग सी उस धनक सुबह की क्यारी सी,
तुम ठीक वही तो हो जो तितली उड़ कर निकली न्यारी सी।
मन के गलियारों में छाति सी घटा सुनहरी प्यारी हो,
तुम चन्द्र सहज सी ओ मलिका तुम मेरी सब कुछ सारी हो।
कर के उजियारा निर्मल सा तुम छटा सहज बीखेरी हो,
स्वर्णिम युग मेरे जीवन में तुम जैस भाग्य की ढेरी हो।
तुम रहो अमर तुम रहो प्रबल तुम तेज उष्ण पुलकित ही हो,
तुम उदित सदा मेरी प्रियासी, सदा सुबह मुस्काती हो।
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उमंगों से भरी पूरी सौगात देखता हूं,
सौंधे से नम उजाले के बीच गुजरता एक नया आगाज़ देखता हूं,
पल यहीं रोक लेने की गुज़ारिश कई सौ बार किये,
मानो खुली आंखों से कोई ख़्वाब देखता हूं।
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