सींच रुधिर जल और लवण से बीज बना जो एक अणु,
लक्ष प्रहर, नित रोज़ जतन से सघन हुआ जो बीज तनु,
नव सृष्टि संकल्प लिए जो त्याग बीज का पादप करते,
उस निष्काम सुक्रत्य का ही तो पावन पवित सुनाम है अर्पण।
लाया कण कण भाप बना जो मेघ अंततः कहलाया,
लांघ हिमालय भी जो आया क्या उसने था धन पाया ?
जीवन को साकार रूप दे स्वयं लुप्त न हुआ कहो ?
निज अस्तित्व को स्वाहा कर गंगा बन जाना ही है अर्पण।
दो ऋतु का पुरूषार्थ हुआ, केवल दो मण धान खिला,
पांच थाल को अन्न मिला, एक उदर को नीर मिला,
कष्ट नही देते औरों को वट वृक्षों की कथा यही,
सब को खुद से आगे रख कर तब मुस्काना भी है अर्पण।
नमन उन्हें जो त्याग स्वयं का अंतिम अंश भी डिगे न हों,
नमन उन्हें भी नव रचना में नींव की ईंट जो बने अहो,
नमन उन्हें मीतप्रेम जिन्होंने प्रेम से बढ़ कर के आंका,
नमन मेरा प्रत्येक उसे जिसमे आया ये भाव यही कि
सब नश्वर, मेरा ना कुछ, अर्पित सब करना लक्ष्य यही,
निज अश्रु की व्यथा त्याग औरों की सुनना ही है अर्पण।
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