Paid Content
-
मुसाफ़िर वो भी थी
मुसाफ़िर हम भी थे
मग़र...
ना वो हमारी तक़दीर में थी
ना हम उसकी मंज़िल में थे-
वो चल पड़ी है अब अकेले
सीख लिया है जीना अब बनकर कुछ अपना कुछ अपने लिए
बना ली है ख़ुद की दुनिया कुछ अपनों से और कुछ सपनों से
सीख लिया है सब थोड़ा-थोड़ा कुछ खुद से कुछ दुनियादारी से
सीख लिया है लड़ना कुछ खुद से कुछ लोगों से
सोच लिया है करने का कुछ अपने लिए कुछ अपनों के लिए
हाँ टूटी थी हिम्मत कुछ दर्द भी हुआ था जब ज़माने में की बातें बराबरी की
लेकिन बना लिया अब ख़ुदको काबिल ज़माने से कदम मिलाने के
सब कुछ करने चली है अकेले...
हाँ अब वो चल पड़ी है अकेले...-
अस्थिर मैं खोज-ए-स्थिर में कुछ ऐसा शामिल हुआ की
मैं कुछ खोया थोड़ा उसमे, थोड़ा उसकी बातों में थोड़ा उसके ख्वाबों में, और थोड़ा उसकी आँखों में
डूबा कुछ
इस तेरह कि फ़िर खुद को भी उसमे डूबने से बचा ना पाया और
पहचान-ए-अस्थिर भी खो बैठा-
ये मैं इतना बैचैन सा क्यूँ रहता हूँ,
ख़ुद ही ख़ुदा से पूछा करता हूँ,
एक ही शख़्स था जहां मे क्या-
ये क़ायनात मेरी आरज़ू से भी बेज़ार है
कम-बख़्तओ ने आज वो पेड़ भी काट दिया जिस पर तेरा और मेरा नाम लिखा था-
और उस दिन के बाद वो मेरे लिए दिसम्बर की धूप जैसी
और मैं उसके लिए जनवरी की ठंड जैसा हो गया था
मेरी मौजूदगी उसे मंजूर नहीं थी और...
मुझे उसकी आहटों की आदत पड़ गयी थी-
की...
ग़म इस बात का नहीं है कि कोई मेरे साथ नहीं है
अजी ग़म तो इस बात का है कि वो मेरे साथ नहीं है
-