नेपोटिज्म को तो जमकर कोसना है चार दिन। हर जगह घूसा पड़ा है। कल पापा भी कह रहे थे अब मेरी उम्र हो गई है कल से गल्ले पे मुझे ही बैठना है। हैशटैग भी लिखे है मैंने और कुछ बड़े बैनर की फ़िल्मे देखना भी बंद किया है इन दिनों। वैसे भी सिनेमा हॉल खुलने में समय है। तब तक तो विरोध कर ही लेना चाहिए मुझे। और ये हरे रंग के कपड़े से नहीं झूलना था सुशांत को। कपड़ा भगवा होता तो शायद इतना दुःख ना होता। भगवान की मर्जी के आगे खुदखुशी में तो खुद की चल ही जाती। पर छोड़ो अभी मानसिक रोग का एक्सपर्ट तो सुशांत था नहीं हमारी तरह। कायर रहा होगा शायद। पर अगर मैं पत्रकार होता तो उनके घर वालो से ये सब ना पूछकर सीधा सुशांत से पूछता के आपको कभी लगा था के आप आत्महत्या कर लेंगे एक दिन?