मेरे हिस्से का उनके पास वक्त नहीं था।
उनके हिस्से की चाय भी मैने अकेले पी है।-
अनन्त के समांतर भी अनन्त है।
कहां मेरे प्रयासों का अंत है?
हारने की तो कई कहानियां लिखी।
कहां मेरी पहली जीत का ग्रंथ है?
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बोतलें तमाम ज़हर की खोल रखी थी मौत ने।
ज़िन्दगी ही हमे निगल गई खुशनुमा सी रात में।-
तुम शोर हो शहर का तो मैं सन्नाटा हूं खेत का।
तुम आलीशान मकां हो तो मैं महल हूं रेत का।
तुम पूर्ण रूप से तृप्त हो तो मैं सवाल हूं पेट का।
तुम प्रतिस्पर्धा का विष हो तो मैं कंठ हूं अनिकेत का।-
कोशिश एक और मर्तबा कर दो।
सारी वफाएं अब अदा कर दो।
मैं टूटा हूं पर बिखरा नहीं।
हो सके तो दरारों में दवा कर दो।
दरारों से ये भरोसा है रिस रहा।
कड़वाहट भी रिसती हो तो दफा कर दो।
अब जुड़े रहना गर हो दर्द दे रहा।
तो चटखती दरारों को और खफा कर दो।
मुझे ढहाने में इतनी मशक्कत क्यों?
एक दगा करके मुझे मलबा कर दो।-
व्यंग्य
नेपोटिज्म को तो जमकर कोसना है चार दिन। हर जगह घूसा पड़ा है। कल पापा भी कह रहे थे अब मेरी उम्र हो गई है कल से गल्ले पे मुझे ही बैठना है। हैशटैग भी लिखे है मैंने और कुछ बड़े बैनर की फ़िल्मे देखना भी बंद किया है इन दिनों। वैसे भी सिनेमा हॉल खुलने में समय है। तब तक तो विरोध कर ही लेना चाहिए मुझे। और ये हरे रंग के कपड़े से नहीं झूलना था सुशांत को। कपड़ा भगवा होता तो शायद इतना दुःख ना होता। भगवान की मर्जी के आगे खुदखुशी में तो खुद की चल ही जाती। पर छोड़ो अभी मानसिक रोग का एक्सपर्ट तो सुशांत था नहीं हमारी तरह। कायर रहा होगा शायद। पर अगर मैं पत्रकार होता तो उनके घर वालो से ये सब ना पूछकर सीधा सुशांत से पूछता के आपको कभी लगा था के आप आत्महत्या कर लेंगे एक दिन?-
तयशुदा मुलाकातों में हमने मिलकर शहर देखा।
जब बिन बताए आई तो मैंने अकेले कहर देखा।-
शब्द संजोए है चुन चुन कर,
उनके चयन में कितनी दुविधा है।
संभल संभल के कब तक बोले,
अब तो चुप रहने में सुविधा है।-
जुल्फ देखूँ या अदा देखूँ, लब देखूँ या हया देखूँ।
सोचता हूँ उनकी आंखों से कभी निकले, तो क्या क्या देखूँ।-
मैं हूं तब तक मेरा कल है।
मैं नहीं तो मेरा कल नहीं।
गर्व करे किस बात का।
जो आज है और कल नहीं।
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