शुरू मैं हूं या कि, अंत मेरा है... मेरी पहचान क्या, मेरी जान तुम बिन मेरी जान क्या, मैं खुद पे तरस नहीं खाता तुम्हारे बिन, और पूछते हो मैं बेचैन कितना तुम्हारे बिन, हथेली की जो भी साजिश है लकीरों के सहारे, उकेर दूंगा लाल पंक्तियां इनपर और सारे इश्क़ के नारे हमारे!
रुआंसें हम गम–ए–ज़िंदगी से कैसे ना हुए, क्या पैमाना बदल गया है आंसुओं के लिए, झरझरा जाती हैं मेरी बंजर आँखें तेरे जिक्र से, मगर दिल में जली आग जरा सी बेदम ना हुई।
मेरी ख्वाहिशों का क्या गज़ब हिसाब लगाया है, दिल मेरा हूक पर है और तुमने कैसा जवाब लगाया है, तुम्हारे मन मुताबिक़ सोचने से सब मुमकिन हो जाता है क्या, फिर तो जिंदगी को छोड़ मैंने मौत को गले वाज़िब लगाया है।