गुरुः उमाशङ्करः   (उमाशङ्करगुरुः)
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Joined 2 October 2019


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संसारविषवृक्षस्य द्वे फले ह्यमृतोपमे I
सुभाषितं च सुस्वादु सङ्गतिः सुजने जने II
( चाणक्यनीतेः )

भावार्थ : इस संसार रूपी विषवृक्ष की दो ही वस्तु या फल अमृत के समान मधुर हैं - रस से युक्त प्रिय वचन और सज्जनों के साथ सत्सङ्ग I इसके अतिरिक्त सभी वस्तुएँ कड़वी ही हैं I— % &

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सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च I
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् II
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् I
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् II

सब इन्द्रियोंके द्वारोंको रोककर तथा मनको हृद्देशमें स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मनके द्वारा प्राणको मस्तकमें स्थापित करके , परमात्मासम्बन्धी योगधारणामें स्थित होकर जो पुरुष ' ॐ ' इस एक अक्षररूप ब्रह्मको उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्मका चिन्तन करता हुआ शरीरको त्याग कर जाता है, वह पुरुष परमगतिको प्राप्त हेता है I— % &

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यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः I
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये II

श्रीमद्भगवद्गीता ८ I ११

भावार्थ : वेदके जाननेवाले विद्वान् जिस सच्चिदानन्दघनरूप परमपदको अविनाशी कहते हैं, आसक्तिरहित यत्नशील संन्यासी महात्माजन जिसमें प्रवेश करते हैं और जिस परमपदको चाहनेवाले ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्यका आचरण करते हैं , उस परमपदको मैं तेरे लिये संक्षेपसे कहूँगा I— % &

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गुणैरुत्तमतां याति नोच्चैरासनसंस्थितः I प्रासादशिखरस्थोSपि काकः किं गरुडायते II

( चाणक्यनीतेः )

भावार्थ : प्राणी गुणोंसे उत्तम होता है , ऊँचे आसनपर बैठकर नहीं , कोठेके कँगूरेपर बैठा हुआ कौआ क्या गरुड हो जाता है ?— % &

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पतितोSपि कराघातैरुत्पतत्येव कन्दुकः I
प्रायेण साधुवृत्तानामस्थायिन्यो विपत्तयः II

( नीतिशतक )

भावार्थ : गेंद हाथ के प्रहारों से गिराई गई भी ऊपर उठती ही है I अच्छे चरित्र वाले लोगों की आपत्तियाँ भी प्रायः अस्थायी होती हैं I — % &

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कृते यद्ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः I
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् II

( श्रीमद्भागवत १२ I ३ I ५२ )

भावार्थ : सत्ययुगमें जो फल श्रीविष्णुभगनान् के ध्यानसे, त्रेतामें यज्ञादिसे और द्वापरमें हरिसेवासे प्राप्त होता है , कलियुगमें वह केवल हरि - नाम - संकीर्तन करनेसे ही मिल जाता है I— % &

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समुद्रावरणा भूमिः प्राकारावरणं गृहम् I
नरेन्द्रावरणो देशश्चरित्रावरणाः स्त्रियः II

( चाणक्यनीतेः )
भावार्थ : पृथ्वीकी रक्षा समुद्रसे , गृहकी रक्षा चहारदिवारीसे , देशकी रक्षा राजासे, और स्त्रीकी रक्षा उत्तम चरित्रसे है I— % &

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शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च I
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् II
( चाणक्यनीतेः )

भावार्थ : मूर्खको प्रतिदिन सैकडों भयके और हजारों शोकके मौके आ पड़ते हैं, पर विद्वान्-को नहीं I

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शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च I
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् II
( चाणक्यनीतेः )

भावार्थ : मूर्खको प्रतिदिन सैकडों भयके और हजारों शोकके मौके आ पड़ते हैं, पर विद्वान्-को नहीं I

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कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः I
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् II
( श्रीमद्भागवत )

भावार्थ :
हे राजन्! यह कलियुग यद्यपि सब प्रकार दोषमय है, फिर भी इसमें यह एक महान् गुण है कि केवल कृष्णके कीर्तन करनेसे ही मनुष्य निःसंग होकर परमपदपर पहुँच जाता है I

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