आगाज किए हैं तो अंजाम भी देंगें।
हर मुन्तशिर ख्वाबों को, मकाम भी देंगें।
और देंगें जवाब उन बदजुबानों को भी,
जो बात बेबात कहते हैं; 'गुरु' ये तेरे बस का ही नही।
उन्हें शायद मालूम ही नहीं, कि;
संकल्प का कोई विकल्प ही नही।।
मेरे संकल्प प्रतिबद्ध पंखों के परवाज ही,
ऐसे हर 'बस' को 'वश' में कर,
सही वक्त पर उन्हें मुहतोड़ जवाब भी देंगें।-
ग़र हो कृपा, तो लिख दूँ अमर, वरना
स्याही की एक बूँ... read more
मौन में मशगूल हूँ, अब मुझपर किसी प्रभंजन का प्रभाव नहीं।
'विरक्त' मुक्त स्वर, उन्मुक्त हूँ, अब किसी 'मुक्तकंठ' के प्रतिउत्तर में कोई जवाब नहीं।
करने दो उपहास मेरी, और कसने दो तंज उन्हें,
जिनकी कहानियों में, मेरा किरदार किसी 'खलनायक' से कम नहीं।
मनाने दो उन्हें 'जीत' का जश्न, मुझे कोई शिकन नहीं।
मैं आत्मोतकर्ष को उद्धत हूँ, मुझे विष-वमन का शौक नहीं।
वो आत्ममुग्ध हो सुनाते रहें, अपने उपलब्धियों के रण-समर में चले गोली-बारियों के किस्से,
मुझे कोई सरस-सुरुचि नहीं।
मैं तो आत्म-अणुओं के अनुसंधान में अध्ययनरत,
'सफलता' के एक प्रचण्ड 'परमाणु-विस्फोट' की जुगत में जुटा हूँ,
मुझे किसी के लिए वक्त नहीं।।-
ये मतलबियों की कौम है जनाब!
यहाँ बदल जाते है लोग भी वक्त की तरह
गर आप उन्हें हद से ज्यादे वक्त दे दिये।
....अफसोस फिर होगा कि;....
बहुमूल्य तो खुद को बनाने में लगे थे,
पर उन्हें अमूल्य बताते बताते..
आज खुद ही मूल्यहीन हो गए।।-
रोमियो-जूलियट सी अब वो शिद्दत भरी मुहब्बत नहीं
हीर-राँझे की अमर प्रेम कहानियाँ भी अब,
महज चंद पन्नों में सिमटकर रह गयीं।
अब तो बदस्तूर ये हर इश्क-ए-दास्ताँ की है;
कि जिनके इनायत में हम बेपनाह होते रहे,
वो हमसे ही वफा-ए-बेवफाई कर गयीं।
हम करते रहे 'गुरु', उनकी सलामती में सजदा
दर-ब-दर
पर, वो हमसे, हमारी शामें ही शिकार कर गयीं।।-
'अपनेपन' और 'आत्मीयता' का सही अर्थ भी भूल चुके हैं वही लोग!
जिनकी खातिर जान छिड़कती रहती हूँ।
'गमों' का गला घोंटकर, जिनके लिए खुशियाँ सजाती रहती हूँ।
गम इस बात की नहीं कि, उनकी आँखों में हमारे लिए पानी नहीं,
तकलीफ तो इस बात की है; हमारी भीगी पलकों पर उन्हें 'हमदर्दी' तक नहीं।
कदाचित! वो अब 'आँसुओं' की कीमत भी भूल चुके हैं
शायद तब ही तो, हमें समझाते हुए हमसे ही कहते हैं;
"आप तो बेकार ही अपना आँसू बहाती हैं,
अब तो अक्सर ही आपसे फोन पर बात होती है।"-
Valentine week special
"इश्क की 'इत्र' लिए, अपनी 'उल्फत' को तलाशने चला..
प्रीत के पवित्र एहसास को, लिए साथ चला..
उम्मीदों के दो 'गुलाब' लिए, हाथों में,
ढूँढ़ने उस 'जहनशीं ' को, सारे जहाँ में निकला..
कशिश-ए-इश्क़ बेशक थी,
मगर मिली न कोई मेरे 'रूह' के काबिल
जो बन सके 'दिल की शहज़ादी', करे मेरे इश्क़ का आदिल"-
आँखों ने अब ये आखरी इल्म भी सीख लिया।
शायद अब यही बाकी रह गया था, आज वो भी सीख लिया
जनाब! 'रुमाल' अपने जेब रखिए,
हमारी आँखों ने अब आँसुओं को निगलना सीख लिया।।-
अगर 'हक' की नजर से देखा होता तो,
बात 'हनक' से कहती।
पर किसी से क्या ही कहूँ, जब
अपने-अपनों के ही बीच, 'अभिशप्त' हूँ!
इसलिए 'कहने' के रिवाज की होली जलाकर,
अब मन की बातों को, मन में ही कत्ल करना सीख लिया है
हाँ!, 'कहना' अब छोड़ चुकी हूँ मैं, क्योंकि पढ़ी थी कहीं,
"कभी-कभी खामोशी भी खुद में अच्छा जवाब होता है"-
दो पल की क्षणभंगुर ज़िन्दगी, जीने कौन आया है यहाँ!
आप या हम ?
तो फिर परवाह किसे है, रौंदते चलो मुश्किलों को ,
अपने जोशीले जज्बातों तले...
या तो मुश्किलें रहेंगीं, या फिर हम!!✌️-
सोचा था....;
शायद गुजर गए, कष्ट-कंटक के मनहूसियत भरे दिन!
अब शायद नव वर्ष सबके लिए मकबूल होगा।
शायद भर जाएँगे 'बीस के टीस'और
'गम के जख्मों का दर्द' कुछ कम होगा।
उम्मीद थी...
नूतन वर्ष के नव परिधान में, उदित होगा उम्मीदों का सूरज, क्योंकि,
बात 'उन्नीस-बीस' की नहीं, 'बीस-बाइस' का है
फासला बड़ा है, अब तो कुछ अच्छा ही होगा।
पर यह क्या...!;
लग गई हमारी खुशियों पर, न जाने कौन सी नजर,
बुझाकर आस-उम्मीदों के दीयों को मुंतज़र,
कमबख्त वक्त ने पलटी ऐसी बाजी,
कैसा नया साल, कैसी खुशी?
जो बची थी बहोत थोड़ी हौसला हिम्मत, सब धराशायी!
इतने में सुनकर कुछ हलचल, पूछा घर के बाहर चलकर,
आखिर क्यों है इतना शोर, और आखिर ये है कौन?
भीड़ से कहा किसी ने, एक बार फिर मुँह ढँक लीजिए,
ये कोरोना के नए अवतार हैं, नाम है 'ओमिक्रोन'!-