प्रेम को वो क्या समझेंगें,
जिन्होंने बेकार पड़ी चीज़ों को सँवारा ना हो।-
यूँ ना बिखेरेंगे तुमको ए-जिंदगी,
तुम्हें ... read more
निःस्वार्थ,
ना तुम हो पाए,
ना मैं।
मुझे तुम्हारा सुख चाहिए था,
तुम्हें मेरे रंग सहेजने थे।
और इस तरह,
हम दोनों मनुष्य ही रह गये।
वरना प्रेम तो हमारा दैवीय था।
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The way we project ourselves in loneliness, is far much important than the way we carry ourselves in public.
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तुम्हारी बनाई चाय नहीं मिलने पर,
मैं पी लेती हूं,
कई कई कप चाय,
हर बार इसी आस के साथ कि,
अबके स्वाद वैसा बैठ पाएगा।
लेकिन अफसोस,
मैं खुद भी मेरे लिए वो प्रेम नहीं उबाल पाती।
- गुंजन झाझरिया-
सब्र और मेहनत का रंग पक्का चढ़ता है,
इरादों की बारूद पर भविष्य पकता है।
आँच कम-ज्यादा रखना भी कला है दोस्त,
जो जानता है इसे,
वो शख़्स हर बार स्वाद ही चखता है।
-गुँजन झाझड़िया
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बहुत दोस्त होते हैं, अलग स्वभाव और व्यक्तित्व वाले। उन सब की हमारी ज़िंदगी में अहमियत भी अलग-अलग होती है। उनसे की जाने वाली बातें भी अलग-अलग तरह की होती हैं। किसी दोस्त से किसी तरह की बात कर पाते हैं, किसी से किसी तरह की। हर बात के दिमाग में घर कर लेने से पहले हमें पता होता है कि ये बात कौन समझ पाएगा, या सुन लेगा। ज़िन्दगी में हर तरह के दोस्त की बड़ी अहमियत होती है, क्योंकि जो बात उससे कर पाते हैं, वो शायद दूसरे से नहीं, चाहे जितना मर्ज़ी ख़ास और समझदार ही क्यों ना दूसरा दोस्त। एक बागिया में तरह-तरह के फूलों की तरह होते हैं, दोस्त। चाहे बरसों बात ना हो, पर अहसास साथ रहते हैं। उनकी और हमारी म्युचुअल समझ की घटना जब भी सामने आएगी, हम उसी दोस्त को याद करेंगे।
यकीन मानिए सभी ख़ास हैं, क्योंकि जो वो कर पाते हैं, वो कोई दूसरा नहीं कर पाता। दोस्ती का महीना है, और ये मैसेज मेरे सभी दोस्तों के नाम कि आप सब ख़ास हैं मेरे लिए, आप सब से कुछ अलग रिश्ता है, अलग जगह है आपकी, जो आपके अलावा कोई नहीं भर सकता, इसलिए साथ और याद में बनाये रखियेगा।
मित्रों, पढ़ पा रहे हो ना, कि आप ख़ास हैं।
मित्रता दिवस की आपको मेरी ओर से बधाई।-
मैं मुझमें वापस लौटने लगी हूँ।
खोया सुकून, और निश्छल मुस्कान,
अब वापस मेरी तरफ़ रुख़ करने लगे हैं।
लाज़मी हो जाता है,
अकेलेपन से भीड़ में जाकर खो जाना,
खुद से जूझना, और रो जाना।
हार मान लेना, घुटनों के बल बैठ कर ज़ोर से चीखना,
और अपनी कलम का मुँह बंद कर देना।
अपना कोना पकड़ लेना, सहम जाना, या किसी दूसरे किरदार को अपना लेना, आसान लगने लगता है।
एक चोट का इतना गहरा असर भी हो सकता है कि,
हर वक़्त कोई मरहम लगाने वाले का,
घातक नज़र आने लगना।
उसी घाव को ख़ुद ही नौंच डालना,
और फिर घण्टों रोना भी कई बार होने लगता है।
To be continued...
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ख़ामोशियों को अंदर जमा लेने में भलाई है,
दौर अब शोरगुल का आने वाला है।
ख़ोजोगे सुकून की छाया हर कदम,
कहर वो आफ़ताब ढाने वाला है।
बैठा लो अक़्ल में ये नसीहत मेरी,
आब-ए-आईना अब धुँधलाने वाला है।
इत्मीनान की राह पकड़ने में भलाई है,
दौर अब आफ़तों का आने वाला है।-
आपने बस यूँ ही कही थी कुछ बातें,
और हम उन्हें पत्थर की लकीर समझ बैठे।
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