गुमनाम शायर   (🅷🅰🆁🆂🅷🅸🆃 🆂i🅽🅶H)
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'त्यागी' 10 Mᴀʏ ᴡʜᴇɴ ᴍʏ Lᴏʀᴅ ᴍᴀᴅᴇ ᴍᴇ ᴀᴡᴀʀᴇ ᴏғ ᴛʜɪꜱ ᴡᴏʀʟᴅ. Aɴᴅ ʙʀɪɴɢ ᴍᴇ ᴛᴏ ᴛʜɪꜱ ᴍᴇᴀɴ ᴡᴏʀʟᴅ.
Joined 14 November 2019


'त्यागी' 10 Mᴀʏ ᴡʜᴇɴ ᴍʏ Lᴏʀᴅ ᴍᴀᴅᴇ ᴍᴇ ᴀᴡᴀʀᴇ ᴏғ ᴛʜɪꜱ ᴡᴏʀʟᴅ. Aɴᴅ ʙʀɪɴɢ ᴍᴇ ᴛᴏ ᴛʜɪꜱ ᴍᴇᴀɴ ᴡᴏʀʟᴅ.
Joined 14 November 2019

जननी
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हां वो जननी है
मृदुलता जिसकी बातों में
जिसकी हाथों में रिश्तों की बेडी हैं
हां वो जननी है
लज्जा से लिपटा हो जिसका तन
जिसके हृदय में करुणा की थैली है
हां वो जननी है
है रूप अनेक साथी, संगिनी, माता या बहिनि
जो दुखो की हरनी है
हां वो जननी है
डाट में जिसके लाड छिपा
जो धरातल की वैतरणी है
हां वो जननी है

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छोड़ ये झूठी दुनिया दारी,
चलो शिव मगन हो जाते हैं!
इस धारा पर स्वर्ग देखने,
महाकुंभ नगरी को जाते हैं!!

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आंखों का वो आंसू जैसे कोई नदी का लोर हो !
लूट गया वो मां का आंचल जैसे कोई चोर हो !!
पिता का हुआ कंधा भारी जैसे क़र्ज़ का कोई बोझ हो !
आंखों का वो आंसू जैसे मानो कोई हिलोर हो !!
टूटा इस जग से नाता जैसे मानो कोई डोर हो !
बिखरा श्रृंगार स्त्री का जैसे मृदुल का जोर हो !!
भाई से उसका साथी छुटा बहन से राखी का डोर वो!
वो परिंदा घर को जाए जिसपे समय का जोर हो !!
मित्र से उसका एक भाई बिछड़ा जैसे कोई झूठेड़ हो!
पुत्र से उसका उंगली छुटा जैसे पत्तो से टूटा कोई पेड़ हो!!
बेटी से छूटा पितृ का कांधा जैसे समय विभोर हो!
एक पल में सारा बंधन टूटा जैसे रिश्ते का कोई कोर हो !!

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गुरुर था कि मैं कोई फूल नहीं हूँ जो फ़रवरी में किसी बेवफ़ा के लिए तोड़ा जाऊंगा!!
ज़िंदगी मरघट-ए-बिस्तर बन गया मुझे क्या ख़बर कि मैं किसी ग़ैर के लिए छोड़ा जाऊंगा!!

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हुस्न पर इतना इतराओ ना मेरी ज़ान
लाख हसीनाएं देखे है हमने ज़िस्म-ए-बाज़ार में

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चलो फिर से एक दफ़ा वही कहानी दोहराते हैं!
भरी महफ़िल में एक रकीब के किस्से सुनाते हैं!!
कौन कहता हैं कि रुखसत-ए-ख़्वाब सबको रुलाएगा!
जनवरी अब बीत गया फरवरी एक नया यार बनाएगा!!
क्यूं कोसते हो ख़ुद को इस क़दर तेरा प्यार ही कल तुझे बेवफ़ा बताएगा!
जब कभी वो नए ज़िस्मो से मिल कर आयेगा सच्च कहता हूं इश्क तेरा
तुझे ही बुरा जताएगा!!


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गुमनाम तेरा इश्क़-ए-रबी प्रिये
यूं रकीबियती किरदार दिखाओ ना
मार गई तेरी इश्क़-ए-पीर प्रिये
गुमनाम कह मुर्दे को उठाओ ना

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इतने बद्दुआ दिया उसने फिर भी गुमनाम तुम मरे भी नहीं।
उसने कहा कई दफा कि जुदा हो जाओ
एक तुम हो की लाख मना करने के बावजूद होते भी नहीं।।

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राख़-ए-ख़ाक वही पर छोड़ कर आए है!
आज मेरे अपने मुझसे मुंह मोड़ कर आए है!!
हो कर शालिख मेरे ज़नाजे में ये अपनापन निभाए है!
मरघट-ए-रुख़्सत पर हमें सुलाए है, सच्च कहूँ तो आज सब आंसुओं के सहारे गुमनाम को भुलाए है!!

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