हर ओर साज़िशों का क़हर नज़र आता है जानता है वो फिर भी बेख़बर नज़र आता है देख के भी जो नही दिख रहा सिलसिलेवार नफ़रतों का आज़ाब घुल रहा है जो फ़िज़ाओं में ज़हर पहन के ख़ुशबुओं का नक़ाब सिया काली है रात और कर दी है गुलशाद धोखेबाज़ ने रोशनी इतनी की सारा शहर दोपहर नज़र आता है हर ओर साज़िशों का क़हर नज़र आता है
धड़कनें मसलसल धड़कती रहीं दहकते रहे मेरे ज़ेहेन में मेरी चाह के शोले कई बार गिरी बिजलियाँ मुझपे कई बार जले मेरे अन्दर जज़्बातों के कोयले तो ऐ इश्क़! सुनो अब राख नहीं बन्ने दूँगा परवान नहीं चढ़नें दूँगा जो आग जली तो बढ़ेगी अब चाहे चले तूफ़ान, बरसे बारिश या गिरे ओले धड़कनें मसलसल धड़कती रहेंगी दहेकते रहेंगे मेरे ज़ेहेन में मेरी चाह के शोले
बेपरवाह बन हवा बेह्ता रहूँ फ़िज़ाओं में ना दबाओ हो हालातों का ना रहूँ किसी तनाओ में मदमस्त मस्ती और मज़ा चले खून के बहाओ में फिर ये भाग दौड़ किस लिए ना भागूँ ना दौड़ूँ ऐसा लगे की बस बेह लिए की ग़म ख़ुशी हो रात या सुबह बस दूर से देखूँ गुलशाद रह के ज़िंदगी की बाहों में बेपरवाह बन हवा बेह्ता रहूँ फ़िज़ाओं में
रात की रंगिनियों में डूबे हो इस क़दर तुम मौत की आहट की भी ना तुम्हें ख़बर होगी ये ज़िंदगी तो काट लोगे इस तरह पर ज़िंदगी के बाद की ज़िंदगी में कैसे बसर होगी माना इस दुनियाँ में है साथ क़ाफ़िले उस दुनियाँ में सफ़र अकेले करना है मौत तो है बस दरवाज़ा उसके आगे भी चलना है फिर नेक आमाल और इंसानियत से ही वहाँ रूह को सबर होगी की इस दुनियाँ की उस दुनियाँ को सारी ख़बर होगी ये ज़िंदगी तो काट लोगे इस तरह पर ज़िंदगी के बाद की ज़िंदगी में कैसे बसर होगी
कैसी है ये झूठी मन की आज़ादी हर कदम पे लगा रहा हूँ दुनियाबी रीति रिवाजों के चक्कर में कलाबाज़ी खोजेंगे तो मिल जाएगा वक़्त और भी वक़्त तो चल रहा है अपने रफ़्तार से ही फिर भी ना जाने कैसी है जल्दबाज़ी हर कदम पे लगा रहा ही कलाबाज़ी कैसी है ये झूठी मन की आज़ादी
ज़िन्दगी तेज़ बहोत तेज़ बहोत तेज़ भाग रही है आज कल की रातें हर रोज़ जाग रही है की चैन की तलाश में और बेचैन होने लगे हम दूसरों की देख के तस्वीरें अपना होश खोने लगे हम हाथ में पकड़े छोटे से पर्दे से बड़ी बेमानी हसरतें जाग रही है ज़िन्दगी तेज़ बहोत तेज़ बहोत तेज़ भाग रही है ......
ज़ख़्म जितना भरा दर्द और उभरने लगा रास्तों में कहीं बिखरने लगा लफ़्ज़ों की दहलीज़ पे आके ज़ुबाँ यूँ ठहर सी गई दिल में था कुछ, कुछ निकलने लगा ज़ख़्म जितना भरा दर्द उभरने लगा
भीगी भीगी पलखों के नीचे तस्वीर धुँधली है जिनका ना पता है ना ठिकाना वो ख़्वाहिशें बुनली है थोड़ा दर्द है, एक मर्ज़ है, रास्ते भी सर्द है ये जो वक़्त है, थोड़ा सख़्त है, पर गर्म अभी मेरा रक़्त है ग़र हमारी ज़िन्दगी है रात जैसी, तो मैंने सुबहा चुनली है जिनका ना पता है ना ठिकाना वो ख़्वाहिशें बुनली
ना जाने क्यों ये बातें यूँ रुख बदल जाती है हर बार हथेली से क़िस्मत की लकीरे फिसल जाती है प्यास जितनी दरिया दूर उतनी हलख सूख जाती है आसमाँ और ज़मीं गुलशाद कहा ढूँढू नमीं ज़िन्दगी के मंज़र में तपन बढ़ती जाती है की ना जाने क्यों ये बातें यूँ रुख बदल जाती है