अब कहाँ उन दिनों जैसी यारी रही, साथ मिलकर गमों को जताते तो थे
जिससे होती थी रोशन फ़िज़ा औरों की, वो दीये अपने घर में जलाते तो थे ,
गांव, गांवो की गलियों में अब ना मिले, अब सहरिया हुएं हैं सभी आदमी
पेड़ पीपल का पनघट पे अब ना रहा, गीत गाके पपीहा सुनाते तो थे,
आज सबको ही पाऊँ मैं पढ़ा लिखा, पर ना गांधी, ना गौतम कोई बन सका
एक अक्षर किताब का पढ़े बिना, ढाई आखर कबीरा पढ़ाते तो थे,
दोस्ती हर गली में द्रुपद-द्रोन की, एक भिखारी बना, एक राजा बना
कृष्ण कोई सुदामा को अब ना मिले, जो महल मीत खातिर लुटाते तो थे ....
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