तड़प क्या समझाऊँ दिल की
शब्दों में वो ढलती ही तो नहीं
आँखों से छलकती तो है मगर
होंठों पे आ निकलती ही तो नहीं…..
तड़प क्या समझाऊँ दिल की…..
भीतर कहीं कुहू-सी उठती तो है
श्वास कहीं बार-बार रुकती तो है
जीवन की डोर छूटती ही तो नहीं…..
तड़प क्या समझाऊँ दिल की…..
राह क्या दिखाऊँ ख़ुद को सब बन्द-सा है
चहूँ छाई धुंध है सब खत्म-सा है
कहीं कोई चीख है जो निकलती ही तो नहीं…..
तड़प क्या समझाऊँ दिल की…..-
उमड़- घुमड़ भावों के बादल ... read more
न गुफ़्तगू न कुछ गुटर गू
न ही दिल की बात कहते हैं
अपने हो गए आज नाम के
चाहे बैठें हों दूर-दूर;
चाहे एक साथ बैठे हैं.....
समय नहीं अब यादों का
न ही भावों का समन्दर है
मस्तिष्क में है बस उथल-पुथल
उलझनों का नाचता बवंडर है…..
न गुफ़्तगू न कुछ गुटर गू …..
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अजीब है; जब लगता है कि साँस थोड़ी आ रही है
कोई फंदा गले का थोड़ा और कस देता है……..-
ये जीवन कभी गुलाल-सा तो कभी धुआँ-धुआँ है
कभी ऊँचाई पहाड़-सी कभी अँधा कुँआ है
जब मीठे पल जीते हैं तो बुरे भी बीत जाएँगे
रख विश्वास स्वयं पर; शिव मिल ही जायेंगे !!😇😇-
कौन यहाँ जो समझे मेरे मन की पीड़ा
कौन यहाँ जो मेरी तड़प समझ पायेगा
कौन यहाँ जो व्यथा सुन मेरी,
नेत्र से अश्रू एक छलकाएगा …..
व्यवहारिकता में लिपटे बुद्धिजीवियों का झुंड है
मात्र तथ्य ज्ञान बिछाएगा
हृदय है ही नहीं भीतर जिनके
भावों के सागर को भला कैसे छू पायेगा …??!!
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मन तो होता है कि तुझे सरे आम रूसवा कर दूँ
अहम् के टुकड़े तेरे हज़ार सौ हज़ार कर दूँ
ज्वाला जो धड़क रही भीतर मेरे
खोल मुख उसका तुझे स्वाहा कर दूँ
पर जब तक संभली हूँ संभालूँगी ख़ुद को
जिस दिन थोड़ा भी डगमगाई तबाह कर दूँगी तुझको !!-
अरे चल तुझसे, अब मुझे कोई बात नहीं करनी
चल चल…..; तुझसे,
अब मुझे कोई बात नहीं करनी
सच तो ये है के;
तू मेरी खामोशी के भी लायक नहीं …..-
अब डरते हो कि तुम्हारी बेवफाई के किस्से,
अब डरते हो कि तुम्हारी बेवफाई के किस्से,
हम सरेआम न कर दें …..
हम सरेआम न कर दें …..
तब ये सोच कहाँ थी…??, तब ये सोच कहाँ थी…??
तब ये सोच कहाँ थी…??
जब रिश्ते को हमारे तार-तार कर;
तब ये सोच कहाँ थी…??
जब रिश्ते को हमारे तार-तार कर;
खुशियों का तराना गुनगुनाते थे
खुशियों का तराना गुनगुनाते थे
तब ये सोच कहाँ थी…??, तब ये सोच कहाँ थी…??
तब ये सोच कहाँ थी…??
जब भरोसे पर हमारे;
तब ये सोच कहाँ थी…??
जब भरोसे पर हमारे;
अपने धोखे का खंजर चलाते थे…..!!
अपने धोखे का खंजर चलाते थे…..!!
अब डरते हो कि तुम्हारी बेवफाई के किस्से,
अब डरते हो कि तुम्हारी बेवफाई के किस्से,
हम सरेआम न कर दें …..!!
हम सरेआम न कर दें …..!!-
धोखा देकर भी तू मुझसे आँखें मिला लेता है
बिना किसी हिचकिचाहट ठहाके लगा लेता है …..
पाप को गलती कह छोटा बना दिया
की नीचता ख़ुद ने दोष उल्टा मुझ पर लगा दिया…..
तनिक-सा एहसास तक नहीं कि सब उजाड़ दिया
मेरी वफ़ा का तूने ये कैसा सिला दिया…..!!!
माथे पर तेरे जरा-सी शिकन तक आती नहीं
या यूँ कहूँ के तुझे मेरी परवाह ही नहीं…..!!-
जिनके जीवन खेल में मैं एक मुख्य पात्र थी
उनके उस खेल से अब मैं बाहर हूँ
फिर उस खेल के भीतर;
जाने क्यों जड़-सी खड़ी हूँ अब भी ??!!-