त्यज साँझ का आँचल ओढ़े निशा श्याम वर्णावरण
सघन तिमिर पथ प्रशस्त करे लघुतम प्रकाश किरण !
भानु को ऊष्ण जानो और शशि का शीतल आचरण
रवि रश्मि से ही ऋणी इंदु किन्तु करे कौमुदी वितरण !
प्रारम्भ अ अज्ञान से निर्मित प्रारब्ध ज्ञ से ज्ञान आचरण
अनन्त काल चौदह लोक धूमिल समक्ष रज गुरु चरण !!-
ये पन्ने जमुना का किनारा है
भावनाएं सफेद पत्थ... read more
आरज़ू इतनी सी है आरज़ू ही न रहे
मैं भी तू हो जाऊं बस तू तू ही न रहे !
चाँद आकर बैठे बगल की डाल पर
परों को आसमाँ की जुस्तजू ही न रहे !
बादलों की गर्जना बरसने से ही मिटे
नज़रें मिलें तुझसे दर्द हरसू भी न रहे !
आगोश में रूह पिघलके एक हो जाए
वस्ल-ए-यार का और पहलू ही न रहे !!-
रौनकें बहुत हैं यहाँ जिस्म-ओ-दौलत के मेलों में
सौदागर-ए-मोहब्बत के दर पर भीड़ नहीं जुटती !
इस सुहानी शाम का रंग है रंग मेरे इंतज़ार का
आसमान ठहरा रहता है बस रात नहीं रुकती !
यादों का फ़ित्ना-ओ-फ़साद¹ ख़्यालों के शहर में
नासमझ समझ के मुत'आरिज़² चाह नहीं झुकती !
कुंज-ए-क़फ़स³ की आदत को ये परवाज़ मुज़िर⁴
परिंदा ठहरा रहे शाख़ में यह तमन्ना नहीं चुभती !
बे'इल्म रस्म-उल-ख़त-ए-इश्क़⁵ से मुहज़्ज़ब⁶ दहर⁷
शोहरत के पलड़े में सादे मन की बात नहीं उठती !
दिन को रोष रौशनी लूटने आ पहुंचेगी फिर रात
चराग़ को यही फ़राग़⁸ बाँटने से आभा नहीं लुटती !
रूठे हुए उजाले बैठकर बुनें लौट आने की साज़िश
बाद-ए-शब-ए-विसाल⁹ जब शम्म'अ नहीं बुझती !!-
प्रकृति आलिंगन हेतु तटिनी तट पर बाहें फैलाई हैं
मुस्कुराहटों के अधरों पर भी कैसी मुस्कान आई है !
उद्दण्ड उत्कंठित पवन उत्छृंखल केशों को उकसाए
यूँ मादक मौसम है चहुँ ओर उनकी महक छाई है !
करवट पलट पलटकर निशिभर अम्बर जागा रहा
मेघाँचल हटाकर मानसून ने रवि रश्मि चमकाई है !
केशों में शोभित कुसुम ने वसन्त को श्रृंगार सीखाया
विस्मित हैं कलियाँ उपवन में रोष की लहर छाई है !
मैं मेघ आच्छादित नील गगन सा गुलाबी हो जाऊँ
संध्या काल ज्यों सूर्य धरा मिलन की बेला आई है !
इस मंजुल पथ पर पुलकित पथिक का पड़ाव पड़ा
मन की आपाधापी ठहरी गति की गति अलसाई है !
मूक सरिता धीर पर्वत अविकल मेघ हर्षित हरियाली
वसन्त के नज़ारों ने भी कहा वसन्त पर वसन्त छाई है !!-
इश्क़ इश्क़ तो सब करें, इश्क़ करे न कोय
जो सब इश्क़ करें, इश्क़ इश्क़ करे न कोय !!
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इंतिज़ार में सरकशी¹ घटाओं की गर्जना गूँजे
दीद-ओ-शुनीद² में, ख़ुशी ज़रा सी रिमझिम हो !
याद में डूबे सूरज की उदास लाली साँझ सी
मिले नज़र तो आसमाँ में जुगनू झिलमिल हों !
लहरों में किनारों पर, बिखरी भीगी भागी रेत
ग़र पुकारो नाम मेरा, रेज़ा रेज़ा तबस्सुम³ हो !
क़ल्ब-ए-मजरूह⁴ शम'अ जला के राह देखे
पास बैठे रहो ग़र, फिर हर लम्हा मरहम हो !
ख़ला⁵ में आवाज़ छटपटाती है सुने जाने को
पूछो जो हाल मेरा, फिर ख़ामोशी तरन्नुम हो !
ख़्वाबों की धारा मुसलसल⁶ तेरे शहर पहुंचे
साथ दिलों का जैसे, जमना तीरे ताजमहल हो !
जैसे लहरें उठें पत्थरों में भी, ऐसी हलचल हो
बस तुम मुस्कुरा दो, मेरी ग़ज़ल मुकम्मल हो !!-
अंत में
तन, मन, धन, जीवन,
साथ, वादे, नाते, यादें,
क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, लोभ,
प्राण, प्रतिष्ठा, पीड़ा, प्रेम
सब छूट जाता है !!
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