अंत में
तन, मन, धन, जीवन,
साथ, वादे, नाते, यादें,
क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, लोभ,
प्राण, प्रतिष्ठा, पीड़ा, प्रेम
सब छूट जाता है !!
-
ये पन्ने जमुना का किनारा है
भावनाएं सफेद पत्थ... read more
दिन रात पत्थरों को सींचने से भी उसमें फूल नहीं खिलते
बीज का जज़्बा पत्थर फाड़ आसमान छूने निकलता है !!-
अथाह सागर को भी किनारे पर डूबते हुए देखा
मैंने मेरा मुझमें मैं खोजते ख़ुद को गुमते हुए देखा !
आते जाते मिलता जुलता याद रहता था अक्सर
ये कौन अजनबी आईने को कहते सुनते हुए देखा !
बादलों की क्या औकात बिन बरसे गुज़र जाएं
कई शामों में मुस्कुराहटों को सुबकते हुए देखा !
आसमाँ पर्वतों के कांधे पर सिर झुकाए रोता रहा
जलधारा में चट्टानों को रेत बन बिखरते हुए देखा !
उलझन सुलझाने में मुंसिफ़ कब उलझा जहान में
इल्ज़ाम किसे दें इसी उलझन में उलझते हुए देखा !
रात भर जलकर चिराग़ों ने सवेरा किया तो मगर
चुंधियाती रौशनी में उजाला भी सिमटते हुए देखा !
बचा-कुचा सा मैं बन्द रहा तेरे दिए गुलाब के साथ
पन्ने खोलकर छूते ही ख़ुदको धूल बनते हुए देखा !!-
Collab प्रतियोगिताओं
के विजेताओं की रचनाएँ
पढ़ने पर कई बार लगता है
कि क्या AI द्वारा रचित रचनाओं
को AI द्वारा ही विजेता चुन
लिया जा रहा है ??-
चिड़िया ! क्या सोचती है?
ये तो चिड़िया ही जाने !
छज्जे पर एक घोंसला भी नहीं
घर कब से हो गए वीराने !
अपने अपने में ही व्यस्त
अपने अपनों से भी बेगाने !
ऊँचे पक्के घर टूटे हुए हैं
थामे हुए हाथ भी छूटे हुए हैं !
तेरे दाने चुगकर मानव न हो जाऊँ
धरती माँ के भक्षक दानव न हो जाऊँ !
बर्बादी की ओर आबादी चली है
आबादी से ही दूर आज़ाद भली मैं !!-
कभी कभी मैं यह सोचता रहता हूँ
तुझे मैं इतना क्यों सोचता रहता हूँ !
क्या चाँद तोड़कर रख लूँगा जेब में
मैं आसमाँ इतना क्यों नोचता रहता हूँ !
बहुत अन्धेरे हैं उजले चेहरों में पसर
रात को शब भर क्यों रोकता रहता हूँ !
यूँ ही अक्सर मेरा मुझमें मैं ढूंढते ढूंढते
मुसलसल तेरे घर क्यों लौटता रहता हूँ !
हाथ छूटे बाद उसके वक़्त ठहरा ही रहा
लम्हें उस मोड़ पर क्यों खोजता रहता हूँ !
दौलत शोहरत सूरत अनमोल जहान में
मैं सादा सरल मन क्यों टोहता रहता हूँ !
यह दुनियादारी दुनिया वाले ही जाने
मैं इस ग़ैर डगर क्यों दौड़ता रहता हूँ !!-