जिस रोज़ तुम्हें पाया था,
उसी रोज़ खोने की शुरुआत हो चली थी शायद।
धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता,
हर लम्हा तुम दूर जा रहे थे।
एक बेचैनी एक कसमसाहट
थी हर पल साँसों में तुम्हारी।
'आज़ादी' ही बेड़ियाँ बन गई थीं
पैरों की।
'प्यार' का ज़िक्र भी जैसे
दम घोटे दे रहा था।
'भरोसा' जैसे कुरेद रहा हो भीतर ही भीतर।
हमारे ही 'सपने'
कर दिया करता थे तुम्हें..खौफज़दा।
बहुत लंबा सफर किया मैंने भी
सवाल-जवाब करते..खुद से।
बचकाना सवाल जवाब।
ऐसा क्यों, मेरे साथ ही क्यों, वगैरह-वगैरह।
खैर अब समझ आता है,
सब सवालों के जवाब नहीं होते,
और सब जवाबों के मायने भी नहीं।
अब तुम्हारा दूर होना भी
वाजिब जान पड़ता है और
पास आना भी बेमायने।
अब जब
न वो प्यार है, न भरोसा न सपने ही
फिर अब...बेचैनी का सबब क्या है।— % &
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