फ़ासले दरमियां इतने भी न थे हमारे,
कि जहां में हम फिर मुकालिमा न हुए।
तल्ख़ियां माना उन रिश्तों में आईं कुछ,
महज क्या इतनी ही हमसे मोहब्बत थी!-
सिर्फ़ यहां लिखने और कहने अाई हूं, दिल को!
और आप सब लोगों क... read more
इस ज़मीं पे न सही
फ़लक में ही कहीं
रूह-ए-मोहब्बत मे घुलेंगें!
फिर इश्क़ के फूल खिलेंगे,
मुताबिक न इस जहां के
मुकम्मल होगा वहां पे
चलती सांसों में न सही
थम चुकी आंखों में कहीं
हम फ़िर मिलेंगे!!
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चाहे इस ज़मीं पे ना सही
उस फ़लक में ही कहीं
रूह-ए-मोहब्बत में घुलेंगे
हां फिर इश्क के फूल खिलेंगे
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जिम्मेदारियां के बोझ ने दिया ढक दिया ऐसे कुछ इक तो शौक थे वो भी मुकम्मल न हुए
चंद सिक्के अपनी ख्वाहिशों के लिए रखे
अपनों की फ़ेहरिस्त में वो भी पूरे ना हुए
सिलसिला थमता ही नहीं हमारे सफ़र का
वक्त और पैसा रुकता नहीं और कसर क्या
बस उम्र ही बेलगाम सी बढ़ती जा ही रही है
और पूरा होने के इंतजार में आरज़ू सिमटती
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तेरी यादों को दफ्न कर सुकून से जीना था जब
कमबख्त अब उसी कब्र में अपना मफ़र ढूंढते है-
धीरे-धीरे हमें तन्हाई रास आने लगी है!
भीड़ में थे हम अब तलक
अब रुसवाईया भी हमको भाने लगी है
परवाह अब सिमट गई
बेपरवाहियां भी यूं मुस्कुराने लगी हैं
अपनों में खुशी ढूंढ रहे थे
अंजान बन 'ज़ीस्त' भी मुंह छुपाने लगी है।
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