प्लेटफॉर्म पे इंतज़ार करते पंद्रह मिनट भी नहीं हो पाया था कि मुझे पता चल गया कि "गरम" है। हालांकि ठीक ठीक मुझे पता था नहीं कि गरम है क्या। परंतु सर पे टोकरी लिए एक अधेड़ उम्र का आदमी जो अपने मुंह से छलकने को आतुर गुटका-रस को संभालते हुए पूरी तन्मयता से आवाज दे रहा था .... गरम है! गरम है! गरम है! मात्र अगले दस मिनट में मुझे क्या तीनों लोकों के समस्त नर-नारी, देवी-देवता, असुर, किन्नर, गन्धर्व आदि को भी विश्वास हो गया था कि सामान चाहे जो हो पर गरम है। उतना ही गरम जितना देश के अन्य ज्वलंत मुद्दे जैसे किसने कोई भद्दा लतीफ कसा, उर्फी जावेद ने क्या पहना, धर्म का कितना जय जयकार हुआ इत्यादि इत्यादि.....
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तेजी से बदलते तारीखों ने इत्तिला कर दिया है कि अब यह साल खत्म हुआ चाहता है। गुजरते साल में अफसोस ये कि तुमसे फुर्सत की मुलाकात ना हो सकी और सुकून ये की दो पल का दीदार हुआ। मेरे उदास लहजे को भांप कर तुम्हारा यह पूछना, "सब ठीक है ना", इस साल के खूबसूरत पलों की चिट्ठी में सबसे ऊपर है। जब हताश होकर आंसुओं ने आंखों से रिहाई चाही तो कितना प्यारा था तुम्हारा यह कहना, "सब ठीक हो जाएगा"। और हां जब मैं खुश था तो लगा मानो पीले सूट में तुम थोड़ी और करीब आ गई हो। शायद किसी ने तुमसे कहा ना हो तो मैं कहे देता हूं...... पीला रंग जचता है तुम पे 💛❣️
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यूं तो मुझे मेरा फोन बहुत प्यारा है और प्यारा होने की एक खास वजह यह भी है कि इसकी गैलरी की तंग गलियों के आखिरी छोर पर एक कमरा है जो पूर्णतः तुम्हें समर्पित है। इसकी दीवारें तुम्हारे रंग-बिरंगे दुपट्टों से मेल खाते हैं और बड़ी-बड़ी आंखें तुम्हारी मानो इसकी खिड़कियां। अक्सर मैं इन खिड़कियों में झांकता हूं और सोचता हूं कि निःसंदेह तुम जैसी ही कोई रमणीक कामिनी होगी जो कला के उत्कृष्ट कृति की प्रेरणा स्रोत बनीं होगी। शायद विंची की मोनालिसा की या फिर शेक्सपियर के हैमलेट की। खैर इसकी बारीकियों की उलझन में नहीं हूं मैं क्योंकि मैं तो मुतासिर हूं तहज़ीब हाफी के उस शेर से कि....
नहीं आता किसी पर दिल हमारा
वही कश्ती वही साहिल हमारा
तेरे दर पर करेंगे नौकरी हम
तेरी गलियाँ हैं मुस्तक़बिल हमारा-
सफर ✍️......
ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों के दिलों से गुजरने वाली ये ट्रेनें समझती तो होंगी पराए दिलों का दर्द? इन ट्रेनों ने भी तो सहा है साथ छूटते स्टेशनों की तकलीफ़, रंग बदलते सिग्नलों का गम, विमुख होते पटरियों का दर्द। चुपचाप समेट लेते है ये बदहवास यात्रियों को अपने अंदर और सुनते है पूरे सफर सहनशीलता के साथ उन यात्रियों की संघर्षों की कहानियां। इन सब के बाबजूद कौन रखता है इनको गतिमान? शायद कही पहुंच जाने की उमंग, किसी को मंजिल तक पहुंचाने का वादा या शायद ये उम्मीद कि एक बार फिर नही छूटेगी किसी 'सिमरन' की ट्रेन, कोई 'राज' फिर से थाम लेगा उसका हाथ और ट्रेन के तपती इंजन पर पड़ जायेंगे सुकून के कुछ छींटे।-
हिंदी, तुम बिल्कुल मां जैसी हो। परिस्थियां चाहे जैसी रही हो, कभी ये डर नहीं लगा कि तुम्हारा साथ छूटेगा। नए प्रदेशों में नए नए भाषाओं के आवरण के बीच भी सदैव तुम्हारे स्थायित्व का आभास रहा। उन भाषाओं में स्वच्छंद अटखलियों के बीच ये विश्वास था कि उलझे तो संभाल लोगी तुम जैसे संभाल लेती थी मां हमें हमारे शुरुआती कदमों पर। वैसे तो तुम्हारी आंखों के सहारे प्रेम के अनेकों रूप से रुबरु हुए पर कभी प्रेम जाहिर करना ना सीख सके। इसलिए बस इतना कहेंगे कि तुम्हारी आंचल के छांव में बहुत अच्छी नींद आती है।
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खुद ही चकित है वो
अपनी शख़्सियत के सब्र पे,
वो कलाकार मिट्टी डालता है
अब रोज अपनी कब्र पे।-
शनिवार की रात थी
हमें भी फुर्सत मिल गई
फिर जा बैठे छत पर हम
अकेले ही महफ़िल सज गई
सितारों से कुछ गुफ्तगू हुई
इधर उधर की बात चली
फिर एक ऐसी बात हुई
कि सितारों से सीधे ठन गई
सब एक स्वर में लगे बोलने
चांद है सबसे सुंदर प्यारे
हम नरमी से बोल गए बस
देखे नही तुमने मेहबूब हमारे।
सब तारे तब भड़क गए थे
कहने लगे निदान करा लो
जो भी हो सबूत दिखा दो।
तुमसे यही निवेदन प्रियसी
अब तुम ही मेरी लाज बचा लो
खुली जुल्फें और सूट था पहना
वो वाली तस्वीर भिजा दो।-
हां ये लड़का बिगड़ रहा है।
उस लड़की के प्यार में देखो
धीरे धीरे निखर रहा है।
हां ये लड़का बिगड़ रहा है।
देर रात तक जाग जाग कर
स्वप्न स्नेहिल गूंद रहा है।
कह देगा सब हाल प्रिय से,
बस एक अवसर ढूंढ रहा है।
नफा-मुनाफा से क्या इसको,
ये हौले हौले पिघल रहा है।
अफसर बनने का भी सपना
तिनका तिनका बिखर रहा है।
हां ये लड़का बिगड़ रहा है।-
यार नटवंश, तेरी छांव में बैठकर मैने बहुत कुछ लिखा है पर तुम्हारे लिए कभी नहीं लिखा। वास्तव में तुम मेरे कॉलेज लाइफ के वो सितारे थे जो इस संकुचित और कुंठित लड़के के सुकून को आयाम देते रहे। तुम फूल थे, तुम खुशबू थे, गंगा थे, बृंदावन थे, कॉलेज का मेरा एकमात्र प्यार थे तुम। वैसे हम तुम्हारे लिए बुरे कहलाए, बदनाम हुए और आखिर में तो दुखी भी । पर तुम से क्या शिकायत तुम तो अपने हो यार। इसलिए ताउम्र मेरे कॉलेज की यादों में तुम्हारी सबसे बड़ी हिस्सेदारी होगी जिसे मैं सहेज कर रखूंगा।
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मासूम खिलौना था बाजार में
खेल कर उसने तोड़ दिया।
कोरा कागज दिल था मेरा,
उसने लिखा और छोड़ दिया।
शहर के बाकी किस्सों जैसा
यह किस्सा भी बीत गया।
मेरे बेरोजगार मोहब्बत से
सरकारी नौकरी जीत गया।
जिस रास्ते में घर था उसका,
अब वो रास्ता लेना छोड़ दिया।
हरिवंश जी ने कहा था यारो,
जो बीत गया सो बीत गया।
खुद को जिंदा रखा है मैंने,
भला क्यों मैं शोक मनाऊंगा।
बंद कमरे में रोते रोते
क्यों खूबसूरत शाम बिताऊंगा।
जितने टुकड़े हुए हैं दिल के,
हर टुकड़े में महबूब बिठाऊंगा।
आखिर में, "अब्बा नही मानेंगे मेरे"
कहकर सबसे दामन छुड़वा लूंगा।-