सुबह का साढ़े चार बजे का वक़्त
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Poetry..
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Just tell me your story i ll... read more
देखो ग़ालिब वो आज कितना इतरा रहे हैं
हमसे सीखी मोहब्बत दूसरों पर लूटा रहे हैं
जब आए थे हमारे पास कच्ची मिट्टी थे
अब ईंट हो गये है तो लोगों के
मकान बना रहे है देखो ग़ालिब कितना इतरा रहे है
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तो क्या हुआ अगर मोहब्बत में मैं तुम्हारी सारी बातें मान लेता हूँ
तो क्या हुआ अगर तेरे बिना बताए मैं तेरे दिल का हाल जान लेता हूँ
तो क्या हुआ अगर मैंने तुझ पर कभी हक़ नहीं जमाया
तो क्या हुआ अगर मुझसे बात करते वक़्त तेरा कभी जी नहीं घबराया
इसे तुम मेरी समझदारी कहो या कह दो की मैं और लड़कों जैसा नहीं हूँ
तुम जिससे मिली थी न पहली बार मैं अभी भी वही हूँ
मुझे नहीं आता तुमसे कोई बातें मनवाना तुम पर चिल्लाकर
मुझे नहीं आता तुमसे कोई बातें कहना थोड़ा इतराकर
ये जो आसान सी मोहब्बत हैं न
हमारे बीच इसकी ही कल्पना की है मैंने हमेशा से
ये जो डाँट फटकारकर मनवाते है न बात
अपनी इससे परहेज़ है मुझे हमेशा से
तुम्हें मेरे लिए कुछ करना हो अगर कभी तुम बस अपने दिल से करना
मैं चाहता हूँ तेरे साथ जीना न की बेवजह मरना
मैं जैसा हूँ मैंने वैसा ही दिखाया है ख़ुद को
न कम न ज़्यादा थोड़ा नादान ही बताया है ख़ुद को
मेरा तुझपर कभी हावी न होना इस बात की निशानी है
ये मोहब्बत अपनी रूह से है न की बस जिमानी है
ये जो कहते न मैं थोड़ा कमज़ोर हूँ
मुझे मर्दों की तरह अपनी बात रखने नहीं आती
सच तो ये है की मुझे इनकी कोई बात ही समझ नहीं आती
मैं ऐसा नहीं था हमेशा से बड़ी आराम से अपनी बातें कहने वाला मुझे भी इन्ही मर्दों ने पाला है
चाहे मैं कितना भी ग़ुस्से में रहूँ क्या कभी कोई ग़लत शब्द तुम्हारे लिए निकाला है
तुमने जैसे मुझे अपनाया अब तक आगे भी ऐसे ही चलना
ये जो फ़िल्मी इश्क़ है न लोगों के दिमाग़ में
इससे बस थोड़ा संभलना
बाक़ी सब अच्छा है हमारे बीच कुछ बचा नहीं है अब बताने को
वैसे ये बात तो सच है कोई न कोई तो होना चाहिए रातों में सताने को-