अक्सर कालिख टीका समझ के उतारी जाती हैं चेहरे पे, वाह रे जमाने, जादा सफेदी भी तुझे रास नहीं आती.
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"प्लॅस्टिकची" नाती, "कचाकड्याचा" खेळ..
बदललेली "माणसं", बदललेला "वेळ"..
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माणसाच्या सवयी लाख बदलो पण "सवयीचा माणूस" बदलला तर मात्र त्रास होतो.
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ना नीलाम होता है किसी बाजार में, ना बेचा जाता है..
क्या खरीदेगा कोई सुकून जनाब, वो तो अपनी मर्जी से आता है..
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कुछ खलिश है, कुछ तपिश है.. और मुसलसल है जिंदगी का बहना, रंजो-गम की स्याही से जो उतरा है काग़ज़ पे उस अहसास का क्या कहना.
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तू मजबूरियाँ बताते जा अपनी, हम मसरूफीयत बरकरार रखेंगे, कयामत भी ना मिटा पायेगी जिसे बस वो ही कहानी सरकार लिखेंगे..
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अबके गमों से कुछ ऐसी सुलाह है की ना कोई शिकायत बाकी ना कोई गिला है.. बहुत कत्ले आम गुजरे ख्वाहिशों के भीतर पर दर्द में भी जीने का ये अजीब सिलसिला है.
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आधी-अधूरी दुवा को कबूला नही जाता, एक डोर वाले झुले पर कभी झुला नही जाता.. कहा मुकम्मल होती हैं कहानियाँ सच्चे दिलवालों की, मगर ये वो दास्ताँ है जिसे भूला नही जाता.
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मौकापरस्ती, आज तक ना सिख पाए जनाब वरना "सौदेबाज" हम भी जरूर होते..
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