पूरे व्यर्थ से जीवन में महज़ अब रातों का हिस्सा भाता है...
ख्वाबीदा मुझ से मिल कर ख़ुद को पुरसुकून बताता है।
आंखो से गिरते मेरे अस्कों पर...
रुमाल वो अपना भिगोता है।
जाने कैसा शख़्स है...
बिन देखे ही मेरे ज़ख्म सहलाता है।
मेरी सारी बुरी आदतों, ख्यालों पर...
अपनी कसमों का ताला लगाता है।
एक ऐसा शख़्स है ख़्वाबों में मेरे...
जो निंदों में दख़ल दे मेरी रातें मुकम्मल बनाता है।
ख्वाबों में सारी उम्र मेरे साथ जीने वाला...
असल मुझे अजनबी बताता है।-
The writer is in चिरनिद्रा 😪😪😪
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Radhe radhe 🖤
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ज़िन्दगी अब तू साथ नहीं लगती
बचपना तो अभी है मुझमें
पर बचपन वाली बात नहीं लगती।
एक वक्त था जब आंख लगे सबेरा होता था,
अब तो तेरी रातों में भी वो रात वाली बात नहीं लगती।
कब कहा मैंने हमेशा मेरे उसूलों पर चल,
मगर तेरा हमेशा ही रूठे रहना...जैसे,
चलती सासें मगर धड़कनें साथ नहीं लगती।
बहौत से किस्से मैंने दफ़न रखें है ख़ुद में...
तू जो महज़ सुन ले मुझे कभी,
मुझे किसी और कि ज़रूरतें यूं ख़ास नहीं लगती।
ख्वाहिशें अब मुझे भी मेरी फ़िज़ूल ही लगती हैं।2।
ख़ुदा के किसी दर पर जो मेरी अरदास नहीं लगती।-
सुनो, तुम वैराग्य हो...
तुम सांत हो, तुम सौम्य हो,
तुम दियों की जलती - बूझती लौ में हो...
जहां मनुष्य कभी पहुंचा ही नहीं,
तुम विराजमान समुद्र की तह में हो।
मधुर तुम चिड़ियों की चहचहाहट सी,
मासूम बच्चों की ज़िद सी हो...
अपनों के लिए तुम आसमान सी,
जमीं पर तुम ही छितिज़ सी हो।
वायु में फैली नमी तुम हो,
पहली बारिश में तपती जमीं तुम हो...
आसमां का तुम अंश हो,
मिट्टी के तुम वंश हो।
समा की तुम सांझ सी।।
नए दिनकर की तुम आश हो।
वेदों का तुम व्यास सी,
अपने शिव का सम्पूर्ण कैलाश हो।
तुम अना, तुम जननी हो...
तुम स्त्री हो, तुम ख़ुद के हाथों का परिकल्प हो।
तुम्हे ज्ञात हो तुम अल्प हो,
सृजन का तुम संकल्प हो...
मोम सी पिघल रही कुछ पल के प्रकाश को,
स्मरण हो तुम्हे तुम मसाल हो...
भोर कब का ढल गया तुम ढलती शाम हो,
साथ किसी के पूर्ण मगर अधूरा नाम हो
शिव ही अपने आराध्य है,
तुम महाकाल का राग हो...
उलझनें महज़ यहां नाम मात्र की होती
परेशानियों का तुम ख़ुद ही समाधान हो।
बेटी, बहन, पत्नी फिर मां...
जीवन की अदाकरियों में अरिहंत हो
वो लकड़ी जो है खूब जली,
जिसकी राख़ भी ज्वलंत हो...
वो आग भला फ़िर क्या बूझे
वैराग्य जिसका अंत हो...।-
तारों सी कोई ख्वाहिश नही।।
महज ख्याल - ऐ - ख्वाब बुनती है...
छुपा सके आँखों की मौसमी बारिश,
वो हर रोज़ ऐसे नकाब बुनती है।
डर है उस चिड़िया को।।
जमीं के जाहिल बाशिंदों से...
अब आसमां में कोई ठिकाना
वो ऊंचा शहराब ढूँढती है।
हवा के हर रुख़ पर हैं निगाहें उसकी...
वो बादलों से ऊचा कोई परवाज ढूॅढती है...
जानें कितनी शामें अधूरी हैँ।।
एक चांद की ख्वाहिश में...
वो ख़ुद का मुक्कमल मेहताब ढूँढती है,
वाकिफ़ है वो जंजीरों से अपनी।।
जो मकां उसका अंधेरों की शिकस्त में है...
मशाल है उसका अपना जहां रौशन करने को,
वो मशाल अपना जला कर दूजों का आफताब ढूँढती है।-
इंसानों में मैंने इक आदत देखी है।।
खंडित से मन में...
मैंने जुड़ने की चाहत देखी है।
टूटते दो हिस्सों में...
मैंने गोंद की इबादत देखी है।
मुक्कमल दीदार तो ना मिला कभी तेरा...
मैंने ख़्वाबों में तेरी आहट देखी है।-
संज्ञाओं से वो अपनी सभी को हंसाती है।।
बुरे वक्त में वो दुआ सी काम आती है।
जाने कौन-सी स्याही भरती है वो,
कलम में अपने...
लिख कर पन्नों पर शब्दों को जीवित कर जाती है।
चंचल सी अटखेलियां उसे भाती बहौत है,
कमेंट्स लिख कर वो मिटाती बहौत है।
जाने कहां से सीखा है उसने हुनर कुछ ऐसा,
वो हंसते गाते दिलों में उतर जाती बहौत है।-
क्यूं उजालों से यूं दूर किए है ख़ुद को।।
क्यूं अंधेरा यूं अपना मकान किए है।
कौफनाक बड़ा है ये तेरा साथ अंधेरों संग
हर शख़्स यह आकर टूट जाता है।
क्यूं अपना मकान यूं खंडहर किए।-
कोई अज़ीज़ मेरा कहीं छूटता सा लग रहा।।
कोई अपना मेरा कहीं टूटता सा लग रहा।
अब क्या कहूं किसी और को मै,
मेरा दिल ही कहीं मुझसे रूठता सा लग रहा।
जाने क्या हुआ शहर के आबो हवा को मेरे।
यहां हर कोई ख़ुद में बिन मुखाग्नि सा जल रहा।-
Khwahish to bahot hai,
Iss adhurepan ko pura karne ki...
Magar pahle puri tarah adhure to ho jaye.-