Firdous Zahra   (Firdous Zahra)
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A writer- a dreamer in the fascinating journey of expression!
Joined 28 September 2018


A writer- a dreamer in the fascinating journey of expression!
Joined 28 September 2018
10 NOV 2022 AT 21:47

लड़की-
इनका जन्म होता है,
या जन्म में इनकी मृत्यु,
मुझे नहीं पता,
लेकिन मुझे ये जानना है,
कौन थी
वो पहली लड़की,
जिसने इस मृत्यु रूपी जन्म में
जीवन तलाशा होगा,
बंदिशों को लताड़ा होगा,
भेदभाव को ललकारा होगा,
कुरीतियों को दहला कर
रूढ़िवादिता का गाला दबोच,
उसे चारो चित फटकारा होगा,
नकली शान के ताज को
अपनी जूतियों की नोक से उछाला होगा,
झूठी इज़्ज़त के गट्ठर को,
बीच चौराहे पर जलाया होगा,
आखिर कौन रही होगी वो
पहली लड़की ?

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17 OCT 2022 AT 23:38

माँ - 

कोई जादूगर  सी है,

आसमान से 

तारे तोड़ चुटिया में संजा देती है,

काजल के काले टीके से 

माथे पर उजला चाँद बना देती है,

सुखी रोटी के कौर में भी 

घी में चुपड़ा स्वाद ला देती है,

सिसकियों को गुदगुदी कर 

खिलखिलाती हंसी बना देती है,

ज़िद के पहाड़ को फुसला कर

बुढ़िया के बाल सी मीठी रुई बना देती है, 

अपनी सुखी आँखों से अधमैले ख्वाहिशों के मोती

चुराकर ख्वाबों के काज-बटन बना देती है,

अपने पहलु में बिठाकर राजा-रानी वाली

कहानियों में पूरी दुनिया की सैर करा देती है,

माँ जादूगर सी ही है, है न ?

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16 SEP 2022 AT 0:30


कुछ-
नोक झोक की टहनियों से,
हर रोज़ कुछ लफ्ज़ वो तोड़ता,
और कुछ मैं...
कुछ नुक़्ते वो ढूंढता,
और कुछ मैं...
कभी कुछ माने-बेमाने वो तलाशता,
और कुछ मैं...
थोड़ी ना-नुकुर वो करता,
और कुछ मैं...
वो हर कुछ छुपा कर भी
सब सुनना चाहता,
और कुछ मैं...
वो सब जान कर भी
अनजान बनता,
और कुछ मैं...
वो कुछ न कह कर भी
सब कुछ कहता,
और कुछ मैं...

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8 SEP 2022 AT 23:22

समंदर के उस पार-
सुनो न, नीले क्षितिज की अंतिम ढलान
तक पहुँचती मेरी बेचैन आँखे
देखना चाहती हैं समंदर के उस पार,
उस छोर के गर्भ को,
जहाँ से जन्म लेती हैं विशाल लहरें,
उनमे बसे अध्भुत जोश को,
उनमें छिपे रोष को,
धरातल में कम्पन पैदा कर देने वाले
भव्य शोर को,
जो कड़कड़ कर उस रहस्यमई,
गर्भ से एक-एक कर अलविदा लेती हैं,
पर क्यों? तुमने कभी सोचा?
कौन सींचता है इन लहरों में इतना हौंसला,
कहाँ से आता है इनमे इतना विश्वास,
जो क्षितिज से किनारे तक की,
दूरी नाप लेता है एक ही प्रयास में,
और त्याग देता है, अपना सर्वस्व
किनारे की छिछली सतह पे,
और निहारती हैं क्षितिज की
वो विस्तृत भुजाएं को, एक बार फिर
उनमे विलीन होने की आस में
क्या हम कभी ऐसा साहस कर
एक को दूसरे में खो पाएंगे? बोलो?

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11 AUG 2022 AT 22:11

आँचल-
सुनो, तुम्हें पता है कल क्या
हुआ?
बीती रात
जैसे ही बादल ने
अपना चमकीला आँचल झट्कारा,
उसके आँचल से कुछ तारों के बीज
आँगन में आ गिरे,
देखना अब इस बसंत में,
हमारे आँगन में बेले-गुलमोहर के साथ-साथ
तारे भी खिलेंगे
तुम हंस क्यों रहे हो?
अरे! मैं सच बोल रही हूँ...

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23 JUL 2022 AT 12:51

4 लोग-
मियां के चबूतरे,
पनवाड़ी की गुमती,
नुक्कड़ वाले होटल
के अधफटे तम्बू के नीचे,
मजलिस के फर्श पर,
मिलादों की कनात के पीछे,
वर्मा जी सुनार के काउंटर से सटे बैठे,
परचून की दूकान पर पुड़िया बंधवा रहे,
दुर्गा पूजा के जुलूस में सबसे आगे चल रहे,
क्या इन्हीं जगहों पर पाए जाते हैं ये 4 लोग?
कौन हैं ये?
क्या किसी ने इन्हे कभी देखा है?

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6 JUN 2022 AT 22:40

दस्तखत-
कोरे कागज़ पर
नीली स्याही से,
कापते हाथों
ने टेढ़ी-मेढ़ी लाइने
खींची और अपनी
'हाँ' रसीद कर दी,
पीछे छोड़ दिए बहुत से
'ना' साथ ही पीछे छूटा
कच्चा आँगन,
रात-रानी की खुशबू,
गलियों में कूदता-फांदता बचपन,
ठहाके-ठिठोलियॉं की गूँज,
चटकीले किस्से-कहानियां,
छत के कोने से टंगा चाँद,
संदूक में रखी एल्बम,
माँ के हाथों का मखमली स्पर्श,
नाक पे रुका उनका जादुई गुस्सा,
होंठो के कोने में छिपी गुलाबी मुस्कान
घर के चबूतरे पर यहाँ-वहां बिखरे
मेरे पैरों के आखिरी निशान,
और हाँ! दराज़ में बंद
मेरी पहली कविता
के कुछ अधमिटे अक्षर...

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20 APR 2022 AT 23:01

बुलडोज़र-
इसके नीचे सिर्फ घर नहीं ढ़हते,
इस से ढ़हता है किसी का ख्वाब,
किसी की चाह,
बंद गठरी में अधमरा विश्वास,
इसके बल में दम तोड़ती
है बेबसी,
चटकती है आस की आखिरी कड़ी,
तार-तार होती है बंद बक्से से झांकती
इन्साफ की सफ़ेद पोशाक,
बिलबिलाती है डेवढ़ी से आधी
लटकी टूटी हुई नाम की तख्ती,
ढ़हती है ख्वाइशों की छत की आखिरी ईंट,
और इसके साथ ही सूली
चढ़ जाती है, बची हुई
हर ज़र्ज़र उम्मीद,
और जन्म लेती है
अविश्वास-कुंठा-द्वेष
के गर्भ से जन्मी खंडहर रुपी लाश...

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19 APR 2022 AT 22:08

मोहब्बत-
सुनो न, सोचो अगर
ऐसा हो के,
रोज़े क़यामत-रोज़े मोहब्बत
में बदल जाए,
जहाँ फ़रिश्ते गुनाहों की जगह
मोहब्बत के हिसाब लगाएं,
तो तुम्हें नहीं लगता
मैं और तुम जन्नत में ही
भेजे जाएंगे,
बोलो, मैं सही कह रही हूँ न?

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16 APR 2022 AT 15:22

The Unmarried Bride-
the day she was born
she got married to
prejudices, bigotry
discrimination, injustice,
moral-social taboos
inequalities, biases, and whatnot
when she opened her palm
for the very first time,
people around her
kept a bale of forced expectations,
tied her freedom with restrictions,
assuming she would carry these things
as the way they want.
when she opened her eyes
for the very first time
people around her
showed some checklist
made the business clear
she was never the first choice
to make things more intelligible
they put the vermillion of patriarchy, dogmatism,
inferiority, and conservativeness,
ask the society to bring palanquin
they shift her from cradle to an unforeseeable journey
where from childhood to adolescence
from adolescence to old age
she would never forget
to put that vermillion of false pride, strangled choice,
on her forehead.

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