बे सकूँ रूह को किसी कल तो क़रार आए
ए मेरे मालिक इस ज्वार का कोई तो किनार आए
ना इतनी तेज़ हो लहरें में अन्दर के सैलाब की
के बेह जाऊँ ना कहीं मैं अपने ही कश्ती की तलाश में
ना उम्मीद बाँध इन खाक़ के पुतलों से मेरी इस क़दर
की खुले जब आँख तो ना चैन आए ना करार आए
कुछ मेरे भी मयार का रख भरम
की जब भी बोझल हो आँखे
सुन के नाम वाहिद तेरा ही मेरी जात को सकूँ आए-
कहाँ को चले थे किधर
ना होश ना कुछ खबर
है अधर में सफ़र
और गुम हैं हम जाने किधर
हैं चढ़ान जिन्दगी की या
हो रहे पस्त हौसले अब
इतना ना था कठिन सवाल ये
जितना बन गया ये अधर का सफ़र-
वक़्त लगता है ज़ख्मो को भरने में
वक़्त कहाँ मिलता है इन्हें ठीक होने
हाँ शायद लफ्जों की ही हेरा फेरी है
कुछ कहने में
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तन्हाई हमारे पास लोगों की गैर मौजूदगी का नाम नही
अगर्चे, हमारे इर्द-गिर्द मौजूद लोगों में हमारे लिए गैर दिलचस्पी हमे तन्हा कर देती है।।
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ए जिन्दगी तु माँ सी क्यूँ नही हो जाती।।
सखावत से भरी, नर्म सी
के जिसके गोद मे सर रखते ही
भुल जातें हैं सभी मर्हले
की जिसकी डांट भी होती है मिश्री सी
हाँ माना सख्त भी होती है कभी वो
पर गुस्से मे भी तो फिक्र ही होती है
ए जिन्दगी तु माँ सी क्यूँ नही।।
छुपा लेती है वो जो आँचल मे अपने
मेह्फूस दुनिया सी लगती है
भटक जाऊँ जो मंजिल कभी
कान पकड़ राह दिखाती है
हर सिख हर सबक सिखाती है
ए जिन्दगी तु क्यूँ नही माँ सी हो जाती है।।— % &-
रंगीन खूवाबों को देखने के लिए भी ये ज़रूरी है
की उन खवाबों मे कोई रंग भरने वाला हो-
फरेबी दुनिया के बदलते चेहरे देख
इतनी तो तस्सली हुवी दिल को
हम उतने भी गलत नही
जितना औरो ने समझा हमे-
जो है हासील उसमें सकूँ क्यूँ नही
जो नही है उसकी आरज़ू क्यूँ है।।
हर खुवाहिश हो पूरी ज़रुरी तो नही
फ़िर भागना खुवहिशों के पीछे ये क्यूँ हैं।।
कोई तो हद हो तेरी हसरातों की
ये तड़पना हसरातों के खातिर क्यूँ है।।
रुक क्यूँ नही जाता किसी जानीब
अरे ए इंसाँ
ये मनज़िलों के पीछे भागना क्यूँ है।।
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चलो छोड़ो बातें अब सारी
पुराने किस्से अब तमाम किए
बहोत हुवे शिक्वे गीले
बहोत करली ज्जदो जहद
अब बस सब्र का दामन थामो
खत्म करो बात पुरानी-