"मेरा जब जब हुआ उनसे कोई अर्ज़-ए-सवाल है
बे-तकब्बुर, बा-अदब, तरीक़ा-ए-जवाब भी कमाल है"
"लिखे गर वो दरिया बराबर तो तफ़्सीर उसकी समंदर करे
है वाकिफ़ वो अक़्सर शय से, तजुर्बे भी उनके बे-मिसाल है"
"माँगे गर कोई सलाह तो दो उसको ख़ुलूस-ए-दिल से
हुक़ुक़-ए-मुसलमाँ भी है ,"सदफ़" का भी यही हाल है"
"देखे है किसने कभी सर सब्ज़ से लबरेज़ आतिश-फिशान
जज़्बातों में सजे अल्फ़ाज़ ,लफ्ज़-ए-सदफ़ ही इसकी मिसाल है"
"है उसूल-ए-क़ुदरत, बरसता है अब्र अक़्सर वही जाकर
जहाँ ज़मी में गर्मी का "फ़हद" ज़्यादा ही उबाल है....!"-
"इतनी कच्ची है मेरे
मक़ान की छत "फ़हद"
ख़ुदकुशी का ख़याल भी करू
तो छत गिरने का डर सताता है...!"-
"है बात बहुत फ़ख्र की, गर देंखने वाले तुम्हे जल के देखते है
ताख़ में हो जो रौशन उसको ही लोग आँख मल के देखते है"
"करते रहे हम लिहाज़ कब तलक उसकी बेवफ़ाई लिखने से
तोहफ़े में मिली थी उससे जो क़लम ,उसको बदल के देखते है"
"रखता नहीं जब ख़ुदा भी आख़िर कोई तअल्लुक़ दग़ाबाज़ों से
लोग वास्ता देकर ख़ुदा का फ़िर क्यों इनको बदल के देखते है"
"इक तबीब ने कराया था इल्म तंग ज़हनो के मरीज़ो का मुझको
आता है जब लफ़्ज़-ए-मीम सामने उनके तो वो खल के देखते है"
"हर चाल पर बदल जाता है प्यादे ओर वज़ीर का रूतबा यहाँ
चलो शतरंज के उसूलो को अब दुनिया से ही बदल के देखते है"
"बनकर मुंतज़िर खड़ा रहे कब तलक इक ही चौखट पर "फ़हद"
बिन जवाब तन्हा ख़ामोश ही सही दूर उनसे अब चल के देखते है"-
"है महफ़ूज़ हर्फ़ों की तब्दीली से ,ये मोजज़ा-ए-क़ायनात है
तिलावत दे तस्सली रुह को वो क़ुरआन की ही किरआत है"
"ज़ीनत-ए-सुख़न की ख़ातिर लिख दिया महबूब को ही ख़ुदा
ये शिर्क है अल्फ़ाज़ी, सुख़न की यक़ीनन बड़ी ख़ुराफ़ात है"
"ज़िन्दगी-ए-इश्क़ के है दो रुख़ ऐसे जलती हुई वो तीली जैसे
जिसके इक ओर आग़ है इक ओर ना-मुक़्क़मल हयात है"
"हक़ को हक़ बातिल को बातिल कहना बड़ा ही मुश्किल यहाँ
ये दुनिया भी नहीं आसां, ऐसे जैसे कोई राह-ए-पुलसीरात है"
"गुज़र हो उनका जिस राह से शैतान भी अपना रास्ता बदले
इस्लाम को पर्दे से निकालने वाले ही उमर इब्ने ख़त्ताब है"
"कैसे पहुंचे प्यादा-ए-फ़हद इस शतरंज की आख़िरी सफ़ में
इस दुनिया में अपने मोहरों से ही जब उसकी शह-मात है"-
" नए लफ़्ज़ों का ग़ज़लों में उनकी अलग ही ग़ज़ाल है
अहसासों से है तरबतर,माना भी उनके बे-मिसाल है"
"है कोन भला वो,है ख़ुदा की इतनी इनायत किसपर
देखो आज ईद का भी चाँद है, उनका भी नया साल है"
"हाल-ए-दिल बयाँ करना बुरा नहीं, है हिदायत उनकी
हुस्न-ओ-जमाल ना लिखियेगा, ये भी अच्छा ख़्याल है"
"सूरत-ए-हाल जानने में किसी का दिलचस्पी नहीं मेरी
वही दोस्त है अपना जिसका अच्छा सीरत-ए-हाल है"
"कहाँ तलाशु उनकी ज़हानत की मिसाल में, है इल्म जब
तह-ए-बहर को रौशन करना बड़ा ही कार-ए-मुहाल है"-
"मिरा शबाबी का शबाब, उसकी उजड़ी जवानी है
कैसे समझे वो दर्द को अब बस इतनी ही कहानी है"
"कर रहा हूँ मै जिससे गुफ़्तगू मेरा ही हमज़ुबानी है
दरमियाँ फिर हमारे लफ़्ज़ों की इतनी क्यों तर्जुमानी है"
"बनाकर अश्क़-ए-क़ल्ब को सियाही लिख रहा हूँ क्यों
जानता हूँ जब ये क़िताब इक दिन फिर मुझे जलानी है"
"करूँगा इज़हार कभी जब,तो करेगा इक़रार तपाक से
तस्कीन-ए-रुह की ख़ातिर ये मेरी अच्छी बदग़ुमानी है"
"जो कहते हो तुम अक़्सर, मिलना नहीं मुमकिन हमारा
ये तुम्हारी ज़ुबानी राय है या कोई अम्र-ए-आसमानी है"
"मसअला ये नहीं है के संभल जाता है हर बार "फ़हद"
है ये ,डूब गया है वो जिसमें वो दरिया ही बे-करानी है"-
"है माह-ए-रमज़ान के आख़िरी अशअरे में नेमते बहुत
है इसमे इक शब-ए-क़द्र, है उसमें ख़ुदा की रहमतें बहुत"
"है रोज़े, ग़िज़ा-ए-रूह, शिफ़ा-ए-जिस्म तो रज़ा-ए-ख़ुदा भी
है इसमें फ़वाईद-ए-दुनिया भी, है आख़िरत की बशारतें बहुत"
"खुलते है दरवाज़े आसमानो के, बरसती है रहमतें ख़ुदा की
है वो रहीम बड़ा कितना, है इसपर क़ुरआन में आयतें बहुत"
"हो जाती नर्म इसमे आग़-ए-जहन्नुम, रुक जाता है अज़ाब भी
फिर भी दिलो में हमारे रमज़ानो में ,इबादतों से है क़राहतें बहुत"
""है रमज़ान माह-ए-बख़्शिश ,है ख़ुदा का तोहफ़ा बड़ा बहुत
जो ना करा सका बख़्शिश, है फरिश्तो की उसपर लानतें बहुत"-
"होता नहीं कोई क़ाफ़िर मुहहबत की इंतिहा से
मुग़ीस भी करते थे तवाफ़ बरीरा का, काबे की तरह....!"-
"बनाकर मर्ज़ को भी हिन्दू-मुसलमाँ, नफ़रत छीकते नज़र आये
मेरे वतन के अक़्सर अख़बार ज़ख़्मो को ओर छीलते नज़र आये"
लगाया गया इल्ज़ाम जिनपर मुल्क़ में वबा फैलाने का
वही इलाज-ए-वबा को अपने ख़ून से सींचते नज़र आये"
"वबा फैले गर कोई किसी जगह तो क्या मसअला हो
मुंक़रीन-ए-इस्लाम भी हदीसो से सीख़तें नजर आये"
"बिन दिए इत्तिला बायें हाथ को, करना था जिनको सदक़ा
उस क़ौम के कुछ फ़र्द भी तस्वीरे खींचते नज़र आये"
"हुआ ताज्जुब जब मेरे शहर के कुछ अमीर भी ऐसे निकले
रोज़ी की क़िल्लत से "फ़हद" जिनके बच्चे चीख़ते नज़र आये!"-
"फिर सब तबाह-ओ-बरबाद-ओ-ख़ाक करेंगे
किसी मसअले पर उनसे कोई ना बात करेंगे"
"मिली गर उनसे कभी नज़रे किसी महफ़िल में
सलाम तो करेंगे मगर कभी आगे ना हाथ करेंगे"
"बन ताउम्र मुन्तज़िर,रखेंगे नूर-ए-महताब बरक़रार
दहकेंगे मगर ख़ुद का लक़ब कभी ना आफ़ताब करेंगे"
"हर बार की तरह मनाएंगे ग़म-ए-हिज्र की ईद हम
वो बेनूर सा चाँद देंखने की फिर कोई ना आस करेंगे"
"नज़रे मिले फिर हमको वही, या ना मिले मुक़्क़दर है
अब कोई नई नज़र मगर हम कभी ना तलाश करेंगे"
"करके विर्द बार बार किसी क़लिमे का माँग लेंगे ख़ुदा से
मगर हम हाज़िर "फ़हद" कभी ना हमज़ाद करेंगे....!"-