सुबह खिलाया करती थी माँ जब
तो फिर खाने को दोपहर नहीं आता
गाँव में थोड़ी ज़मीन और होती
तो कमाने को मैं शहर नहीं आता
कभी पुछ तो लो मुझसे मेरी मर्ज़ी
गाँव में हूँ तो क्यू वक्त ठहर नहीं जाता
मैं तो उस मिट्टी से हूँ
जहाँ दरिया नहीं जाती, नहर नहीं जाता
सुहागन धरती वहाँ विधवा सी रहती है
जब तक बेवफ़ा सावन लहर नहीं जाता
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