Er. Shiv Prakash Tiwari  
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Singer, Engineer, poet...
Joined 28 November 2018


Singer, Engineer, poet...
Joined 28 November 2018
26 APR AT 22:46

मैं नहीं वह व्यक्ति जिसके शब्द को तुम काट दो,
मैं नहीं वह व्यक्ति जिसको धर्म में तुम बांट दो,
हां मगर यदि कोई दुश्मन चाहता ही युद्ध हो,
मैं नहीं वह व्यक्ति जिसको वीरता में छांट दो,
मैं लहू उस परशु का जिसने चुना अपराजिता,
धर्म के खातिर है जिसने भीष्म से भी युद्ध जीता,
मैं अगर अब झुक गया क्या रक्त का फिर मोल होगा?
धर्म ही यदि डर गया तो धर्म का क्या बोल होगा?
साहसी है वह नहीं जो युद्ध का उद्भव करे,
हां मगर यदि रण में हो तो पग न फिर पीछे धरे,
आख़िरी कौरव भी यदि बच गया तो बात क्या!
समर का निर्णय तभी जब एक न शत्रु बचे,
फूंक दो अब शंख को विध्वंश होना चाहिए,
जो करे आतंक उसको ध्वस्त होना चाहिए,
अब समय का चक्र जब घूमा है दुश्मन की तरफ,
जन्म का अस्तित्व इनका नष्ट होना चाहिए,
चाहिए कि फिर न कोई भी बचे जो अग्नि दे,
चाहिए कि फिर न कोई ऐसे वहशी जन्म दे,
चाहिए परिणाम ऐसे जो लिखें इतिहास में,
प्राणता का वेग भर दे मनुज के विश्वास में,
चाहिए कि हर तरफ़ बस शांति की गूंज हो,
जब नया सूरज उगे तो कान्ति की पुंज हो.....

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गोलियों की नोक पे जब धर्म का प्रसार हो
ग़ैर धर्म के लिए जब मन में व्यभिचार हो
इंसान जब इंसानियत को भूलकर आगे बढ़े
मन में जब हैवानियत का वेग बेशुमार हो
अब समय है युद्ध हो बदलाव के एक भेष का
मुक्त हों सारे जहां निर्माण हो उस देश का
युग पटल की साख को कब तक रखोगे बांधकर
हिन्दुओं की आग को कब तक रखोगे साधकर
आतंक की सीमाएं जब मर्यादाओं की हद पार कर दे
जब निहत्थे मासूमों पर झुंड में कोई वार कर दे
वक्त है हम एक होकर इस बुराई को मिटाएं
आतंकियों की जड़ों को इस बार हम जड़ से मिटाएं
फिर से कोई संगठन इतना बड़ा न हो सके
वार हो ऐसा कि अब कोई खड़ा न हो सके
देश हो या वेश हो सब को मिटा के खाक कर दो
पाक की धारती को अब इन पापियों से पाक कर दो
देश जो हिम्मत करें ऐसे लहू को पालने की
विश्व से नामों निशाँ उनका मिटाकर साफ़ कर दो

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20 JAN AT 17:15

ख़ुद को देखो तुम! क्या से क्या हो गए?
ज़माने की मशरूफियत में बेइंतहां खो गए
कहां जाना था और कहां चले आए हो?
दबाकर ख्वाइशों को चैन से क्यों सो गए?
तुम्हारे तल्ख लहज़े दब गए किस बोझ से?
तुम्हारे पैर क्यों डरते हैं अब कुछ खोज से?
समझता हूं तेरी मजबूरियां फिर भी मग़र!
कि मरना आज का बेहतर है, मरने रोज से
है मुश्किल कुछ नहीं! आसान सब है जान लो
अगर शिद्दत से कुछ भी मन बनाकर ठान लो
इसी मिट्टी से ही, कितने ही हैं नायाब निकले
शिवा जी, चंद्रशेखर, भगत सिंह जांबाज़ निकले
समय बदले, बदल जाए ज़रूरत आज की!
मग़र इस देश में अब भी कमी जांबाज़ की
ये लुटते लोग अपने देश में मंहगाई से!
ये खाली जेबें अपनी रोज़ की दवाई से!
कि खेत में दफ़न जिसका पसीना हो गया!
वो कर्जे में दबा है खेत की सिंचाई से
न जाने कितनी जानें पनपती हैं झोपड़ी में
जो छत भी जोड़ ना पाए हैं कुछ कमाई से
चलो कुछ हौंसला भरकर करें कुछ बात हो
कि इस देश में एक दिन सुनहरी रात हो
ज़रूरत मुक्त हाथों को है मुट्ठी में बदलने की
बदल जाएगा सब कुछ, हम अगर सब साथ हों.....

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11 NOV 2024 AT 11:04

नित जीवन के संघर्षों से, जब टूट चुका हो अन्तर्मन
तब सुख के मिले समन्दर का, रह जाता कोई अर्थ नहीं।।

जब फसल सूख कर जल के बिन, तिनका-तिनका बन गिर जाये
फिर होने वाली वर्षा का, रह जाता कोई अर्थ नहीं।।

सम्बन्ध कोई भी हों लेकिन, यदि दुःख में साथ न दें अपना
फिर सुख में उन सम्बन्धों का, रह जाता कोई अर्थ नहीं।।

छोटी-छोटी खुशियों के क्षण, निकले जाते हैं रोज़ जहाँ
फिर सुख की नित्य प्रतीक्षा का, रह जाता कोई अर्थ नहीं।।

मन कटुवाणी से आहत हो, भीतर तक छलनी हो जाये
फिर बाद कहे प्रिय वचनों का, रह जाता कोई अर्थ नहीं।।

सुख-साधन चाहे जितने हों, पर काया रोगों का घर हो
फिर उन अगनित सुविधाओं का, रह जाता कोई अर्थ नहीं।।

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17 SEP 2024 AT 22:25



अपने ही सपनों से, समझौता करने लगा हूं मैं 
भागती दुनियां के पीछे, ठहरने लगा हूं मैं 
जो चाहता हूं करना, वो कर नहीं सकता अभी 
इस ज़िन्दगी की जद में, क्या करने लगा हूं मैं 
कोशिश जरूरी है, ये जानते हुए भी
क्यों कोशिशों से डरकर, थकने लगा हूं मैं
आसान लगती ज़िंदगी, दुश्वार है मुझे 
खुद के लिए ख़ुद से ही अब, लड़ने लगा हूं मैं 
लोगों के समझ में मैं, अक्सर नहीं आता
मंज़िल की राह में मेरा, दफ़्तर नहीं आता
जो सोंचता हूं सोंचकर, डरने लगा हूं मैं 
थोड़ी सी खुशियों के लिए, मरने लगा हूं मैं 
मालूम है आकाश को, छूना नहीं आसान
फिर दौड़ सितारों की क्यों, करने लगा हूं मैं 
इंसान तो वैसे बहुत, सुलझा हुआ हूं मैं 
क्यों आज कल इन बातों में, उलझा हूं मैं 
नाचीज सी ये ज़िंदगी, मेरे लिए नहीं
क्या खोजने निकला था, भटकने लगा हूं मैं...

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16 SEP 2024 AT 20:50

नाम कलि है...

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14 SEP 2024 AT 8:07

अंत नहीं है पता समर का, रण में कौन विजय हो?
अर्जुन का यश हारेगा, या दुर्योधन की जय हो
सत्ता की लालच में देखो, सारे कौरव मिले हुए हैं
देश विरोधी लोगों के, चेहरे क्यों इतना खिले हुए हैं?
खालिस्तानी, आतंकी भी, संसद में अब बैठेंगे?
संविधान को लिखने में, ये कैसे हमसे गिले हुए हैं?
जाति धर्म की राजनीति के, परिचालक क्यों जिंदा हैं?
झूंठे जुमले देने वाले, थोड़ा भी शर्मिंदा है?
चेहरे को बुर्के से ढककर, सच्चाई क्या देखोगे?
निजी स्वार्थ में उलझे रहकर, कब तक पत्थर फेंकोगे?
कब तक तुम यूं बिखरोगे, झूंठे सपने, अफवाहों से?
राष्ट्र प्रेम की सेवा से, विकसित भारत की राहों से
हम आज़ाद हुए पर, आज़ादी का मतलब कब जानेंगे?
सोंच विदेशी बेंच रहे जो, उनको कब दोषी मानेंगे?
कब होंगे आजाद भला हम, फैले घनघोर कुहासा से?
जीवन को कब जानेंगे, जीवन जीने की आशा से.....

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12 SEP 2024 AT 0:18

आख़िर कब तक??

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2 JUL 2024 AT 11:44

अगर तुम अपने आप को थामे रख सकते हो जब चारों ओर लोग अपना धैर्य खो रहे हों और इसका दोष तुम्हें दे रहे हों,
अगर तुम अपने ऊपर भरोसा रख सकते हो जब सभी लोग तुम पर संदेह कर रहे हों,
अगर तुम इंतजार कर सकते हो और इंतजार से थकते नहीं हो,
अगर तुम झूठे होने पर भी झूठ का सहारा नहीं लेते,
तो हिम्मती हो तुम.....

अगर तुम सपने देख सकते हो पर सपनों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देते,
अगर तुम सोच सकते हो पर विचारों को अपना लक्ष्य नहीं बनने देते,
अगर तुम सफलता और विफलता से एक जैसे मिल सकते हो,
अगर तुम सुन सकते हो अपने कहे गए सच को जो दुष्टों द्वारा तोड़ा-मरोड़ा गया हो,
तो हिम्मती हो तुम.....

अगर तुम अपनी सारी जीतों का ढेर बना सकते हो और गर्वित नहीं होते,
अगर तुम हार सकते हो और फिर से अपनी शुरुआत से शुरू कर सकते हो,
अगर तुम अपना सब कुछ खो करके भी अकेला नहीं महसूस करते,
अगर तुम तब भी रुकते नहीं जब तुममें कुछ भी नहीं बचा है सिवाय उस इच्छा के जो तुमसे कहती है: ‘चलते रहो!’
तो हिम्मती हो तुम.....

अगर तुम भीड़ से बात कर सकते हो और अपना चरित्र रख सकते हो,
अगर तुम राजाओं के साथ चल सकते हो पर अपना साधारण स्पर्श नहीं खोते हो,
अगर न तो दुश्मन और न ही प्यारे दोस्त तुम्हें चोट पहुँचा सकते हैं,
अगर तुम देख सकते हो उन चीज़ों को जिनमें तुमने अपना जीवन दे दिया, टूटे हुए और पाया नहीं,
तो हिम्मती हो तुम.....

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22 APR 2024 AT 18:33

नींद अधूरी ख़्वाब अधूरे, ख़्वाबों के मेहराब अधूरे
कल-कल करता जीवन बहता, पर जीवन के आब अधूरे
यही समय है पूरा कर लो, जो चाहो मुठ्ठी में भर लो
फिर आगे का पता किसे है, कितनों के घर-बार अधूरे
प्रांतर बनकर जियो नहीं तुम, घुटकर अमृत पियो नहीं तुम
मुक्त बेड़ियों से बेहतर हैं, अपने मन के घाव अधूरे
कैसा रस्ता, कैसी राहें, थक करके खुब भर लो आहें
मौके के जाने से बेहतर, व्यथित ह्रदय के भाव अधूरे
देख-देख कर लोगों को, ये बदल रहे जो फैशन तुम
बदल सको तो ख़ुद को बदलो, ब्रह्म अंश के भाग अधूरे
फैल रही हर तरफ तबाही, शोषणकारी मद में है
भूल रहा इंसान आज क्यों, हम ईश्वर की जद में है
मानवता ने मानवता को घूंघट में ढक रक्खा है
देखो कब तक चक्र सुदर्शन मर्यादा की हद में है
काल समय है कब आ जाए, उससे पहले कुछ कर लो
वरना जाने कितनों के ही, महलों में भी नाम अधूरे...

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