Ekta Agrawal  
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Joined 25 November 2017


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Joined 25 November 2017
YESTERDAY AT 9:29

जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अलग होता है
उसी प्रकार उसके द्वारा कही गई प्रत्येक पंक्ति के अर्थ भी अलग हो सकते हैं...
एक व्यक्ति किसी और संदर्भ में कोई बात कह रहा होता है
और दूसरा व्यक्ति उसी संदर्भ में उसी बात का कोई और मतलब समझ रहा होता है....

दोनों में से कोई भी गलत नहीं होता
बस इतनी सी बात है कि
दोनों का मस्तिष्क सम विषय पर भी समान नहीं सोच सकता,
कारण कि संरचना ही भिन्न हैं
फलस्वरूप मतभेद होने की परिस्थितियां उत्पन्न हो जातीं हैं...

ऐसे प्रसंग में दो ही विकल्प बचते हैं
अगर संबंध निभाना है तो बात विस्मृत कर दो,
अगर बात का विस्तार होगा तो निश्चित ही आक्रामक व्यवहार होगा और संबंध प्रभावित होगा...

चेष्टा ये करनी चाहिए
कि क्रिया ऐसी होनी चाहिए जिससे मन: स्थिति प्रसन्न रहनी चाहिए...

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13 MAY AT 17:25

सुनो!
कागज़ के टुकड़े पर
ज़िंदगी को
टुकड़ों में
मिसरों में सजाना,
कला है ...कि गुनाह
ज़रा बताना!!

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13 MAY AT 9:55

आत्मा का शुद्ध
और
ज्ञान का सिद्ध हो जाना....

बुद्ध सबको याद है
उनकी ख़ोज का प्रथम चरण गृहत्याग है,
समस्त संसार पर उनका घना प्रभाव है
मगर अर्द्धांगिनी को उनका निरा अभाव है...

सत्य के प्रकाश में
हृदय संताप से घिरी
यशोधरा को ना भूल जाना....
बुद्ध होना मुश्किल है
लेकिन आसान कहां यशोधरा सा शांत हो पाना....

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13 MAY AT 9:41

पहाड़ सा जीवन
पाषाण सा हृदय...
उन्मुक्त पवन
आसमान अनंत....
बर्फ़ पिघलना नहीं चाहती थी
और मैं ....जमना!
उस पर आदित्य के ताप का असर ना हुआ,
और मुझे मयंक नित्य ही प्रभावित करता रहा!!

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13 MAY AT 9:34

हृदय की संवेदना और मस्तिष्क के संताप का एकरूप हो जाना.....

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13 MAY AT 9:27

भावनाओं के अतिरेक में
व्यक्ति अक्सर विवेक खो देता है,
भले भी वह भावना
क्रोध की हो ..प्रसन्नता की हो ...या विषाद की...

परिस्थितियां कुछ भी हों
प्रतिक्रिया धैर्य पूर्वक देनी चाहिए,
ये सिद्ध करेगा
कि आप इंद्रियों के गुलाम नहीं
बल्कि इंद्रियां आपके नियंत्रण में हैं....

संभवतः मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि ही यही है!

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12 MAY AT 10:53

हृदय का संताप
जब लफ्ज़ों की पहुंच से बाहर हो जाता है
तब वो स्पर्श-इंद्रियों के हिस्से आ जाता है....
इसीलिए
हर्षातिरेक हो या असहनीय पीड़ा
अधर खामोश हो जाते हैं
कंठ अवरुद्ध हो जाता है,
देह का स्पंदन और अश्रु प्रबंधन निर्धारित करते हैं
भावों का प्रदर्शन
अगर एहसासों में नजदीकियां हों
तो बिना कहे ही हर जज़्बात सिद्ध हो जाता है......

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11 MAY AT 13:18

माँ बोलती हुई ही अच्छी लगती है
भले ही बेवजह की बातें हों...
माँ का मौन ...अगर अखरता नहीं
तो बड़ी बदनसीब संतान है वो,
यकीनन कहीं कमी रह गई
लालन-पालन में ....
वरना
जो माँ अपने अबोले बच्चे के हाव-भाव से
उसके सुख-दु:ख का अंदाज़ा लगा लेती है,
उसे इतना बेवकूफ कब से समझ लिया तुमने
कि वो तुम्हारे बोले हुए शब्दों को सुनकर भी अनसुना क्यों कर देती है .....
वजह... केवल एक है
ना तो वो अपनी परवरिश पर अफसोस करना चाहती है
और ना अपनी संतान पर शक....
याद रहे
एक माँ...जो कि स्त्री का सर्वश्रेष्ठ रूप है
समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संबंध है ....
अगर वो खामोश है
समझ लीजिए...वो अपनी संतति से अत्यंत निराश है!

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11 MAY AT 13:05

सही मायने में स्त्री
अर्थात
स्त्रीत्व के जो गुण बताए जाते हैं,
उन पर खरी उतरती हुई
सीधी ..सहज ..सरल और समर्पित...
उन्होंने कुछ सिखाया नहीं कभी
उनके आचरण में.. अस्तित्व में... क्रिया-कलापों में
उनकी विशेषताएं दिख जाया करतीं थीं अक्सर,
उन्हीं की तरह ....मौन.... मगर असरदार!
निश्चित ही मैं अपने पिता के प्रतिबिंब सी हूँ,
लेकिन माँ की परछाई हूँ...माँ के अंतर्द्वंद्व सी हूँ.....

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11 MAY AT 11:02

माँ
केवल एक रिश्ता नहीं
महत्वपूर्ण एहसास है,
ममत्व का भाव
स्त्रीत्व के लिए बहुत ख़ास है...

नारी की ममता
मात्र उसकी संतति के प्रति हो
तो वो संपूर्ण स्त्रैण का उपहार नहीं,
ममता की मूरत के
हृदय में भेदभाव का होना स्वीकार नहीं....

नैसर्गिक गुण हैं
माँ के स्वभाव के
प्रेम ..दया..क्षमा और त्याग,
वो माँ कैसे हो सकती है
जिसको अपने बच्चों तो प्यारे हों
और बाकियों के लिए हो निरा अभाव......

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