लम्हे दर लम्हे सिमटती हुई ज़िंदगी,
बिगड़ा हुआ लहज़ा, बिखरती हुई ज़िंदगी...
कुछ न सीखा उम्र से, उम्र का गुमां क्या करें,
तिफ्ल-पन से रही है अब तलक वही ज़िंदगी...
वही खयाल, वही पैंतरे, वही तरकीबें ज़हन के,
कहने को है मुसलसल बदलती हुई ज़िंदगी...
खामखां ही बोझ बनी खामखां की ख्वाहिशें,
खामखां एक हस्ती को कतरती हुई ज़िंदगी...
माना कश्ती-ए-हयात का वादा न था साहिल,
फकत छू कर लहर सी गुज़रती हुई ज़िंदगी...
न चले पतवार तो लाज़िम डूबना कम-अज़-कम,
उस पर भी मुरीदों से मुकरती हुई ज़िंदगी...
सब मिटा दें क्या आज रोक के ये सफ़र?
इस सवाल से मुसलसल उलझती हुई ज़िंदगी...-
एक और ख्वाहिश, एक ख्वाहिश के बाद...
कि सिकंदर ही बना दो सताइश के बाद...
देखा न अंदाज़-ए-कत्ल सबा-ओ-आब का,
कब बरसा नूर, किसी आज़माइश के बाद?
खुदा, इब्लीस भी इसी फलसफे के शिकार,
क्या फसाना घटा कितनी गुंजाइश के बाद!
मर्म-ए-ज़िंदगी तो है बड़ा मुख्तसर फ़िरदौस:
जो है अंजाम से पहले और साज़िश के बाद...-
आइने शर्मिंदा नज़र आए इस कहानी पर,
कि कैसे एक उम्र बर्बाद हुई जवानी पर...
कितने सफीने तह-ए-आब हुए हैं तुम्हारे,
अब भी नहीं यकीं समंदर की बेकरानी पर...
चमन-ए-ख़्वाब भी हुआ न शादाब कभी,
ज़रा कम-ज़र्फ रह गए हाथ बागबानी पर...
अब सन्नाटों के शनास हो, तो हैरत क्या?
जो मुद्दतों से नाज़ां न हुए खुश-बयानी पर...
जाने किन सांचों में ढालता रहा वक्त तुम्हें,
क्या कोई आ न सका तुम्हारी निगरानी पर?
तुम्हें शिकायत तो नहीं मगर मंज़ूर भी कहां,
कि मनमानी से रहती है रंजिश मनमानी पर...-
मौसम के शबाब-ए-ख़ाक का मुजरिम हूं मैं,
सबा-ओ-शाख-ए-गुलाब का मुजरिम हूं मैं...
कायनात की गलती वस्ल-ए-ज़मीं-ओ-जबीं,
अब उसके हर कयास का मुजरिम हूं मैं...
जलाता हूं नशेमन परिंदे का एक किताब पढ़
तमाम दरख़्त-ए-हयात का मुजरिम हूं मैं...
मैं देखता हूं ठहर के हर टूटता सितारा,
उम्मीद के हर शिकार का मुजरिम हूं मैं...
जिसके नसीब आया हर उस बदनसीब के,
तमाम सबब-ए-ज़ार का मुजरिम हूं मैं...
तुम अंजान हो मगर महफूज़ नहीं देर तक,
हां, तुम्हारे भी किसी अज़ाब का मुजरिम हूं मैं,
मुंतज़िर हैं कातिल मेरे, मैं लौट जाऊं अगर,
यूं कि सारे शहर-ए-यार का मुजरिम हूं मैं...
ढलते फलक पर हो सके तो मुस्कुरा लो तुम,
फ़िरदौस, रूठे महताब का मुजरिम हूं मैं ...-
अब हाथ आए सितम, तो सितम ही सही...
महसूस हो ज़रा कुछ तो, बरहम ही सही...
जो भी हो रज़ा-ए-गर्दिश वैसा चले सफ़र,
कातिल निकले हमारा गर हमदम ही सही...
मुख्तलिफ तजुर्बों में आज का क्या इस्म करें?
कल कोई हुआ था फना, आज हम ही सही।
क्या ही जान लिया इंसान की पैदाइश से?
अब के मिले तो मिले, हयात-ए-गनम ही सही!
आज मिलीं तो नज़रें कम से कम खुद से,
बहर हाल मिलीं नज़रें नम ही सही...
शायद कोई शरर बाकी है दिल में फ़िरदौस,
आंच तो आती है दिल से, कम ही सही...-
बात मुख्तसर थी मगर बात कुछ ज़्यादा लगी,
हर मात पे कहा हमने ये मात कुछ ज़्यादा लगी...
सब कुर्बानियों का चश्मदीद करता है शिकायत,
कि हमें एक पहर की अर्फात कुछ ज़्यादा लगी...
फवाद-ए-गुलाम आदतन है खुश्क ज़बानी का,
सताइश अक्ल न आई, इख्बात कुछ ज़्यादा लगी...
सर फरोशी की तमन्ना हमारे दिल में भी उठी,
जब आज़ाद तसव्वुर की खैरात कुछ ज़्यादा लगी...
ना-शऊर खयालों पे थी ज़ंजीर जो आपने तोड़ दी,
ज़ख़्म पे नमक सी ये सौगात कुछ ज़्यादा लगी...
अब रोज़ाना दरिया-तलब होगा ये चमन शादाब,
बंजर बियाबान को एक बरसात कुछ ज़्यादा लगी...-
किस बात की टीस उठी, मलाल-ए-शब क्या हुआ?
एक इरशाद पे बज़्म पूछ बैठी, बताओ अब क्या हुआ!
एक मनहूस घड़ी पे उठा था और भी मनहूस सवाल:
हुजूम के मानिंद पैदा हुए, इसमे ग़ज़ब क्या हुआ?
इक लम्हे का चैन मिला था मेहबूब से विसाल पर,
सब पूछ बैठे मेहबूब का नस्ल-ओ-मज़हब क्या हुआ?
आप यूं देते हैं हिदायत कि हम रिश्तों में हिसाब रखें,
बताओ इस तर्ज़ पर आपका रिश्ते में रब क्या हुआ?
हैरान हूं कि अब हैरान भी नहीं इस बेहूदगी पर आपकी,
कि गम-ख्वार बना के पूछना, गमों का सबब क्या हुआ!
फिर इस दुनियां में वजूद का इख्तियार कोई दे अगर,
सबक याद रखना फ़िरदौस जब था वजूद तब क्या हुआ...-
रात काटी नहीं जाती, और नसीब में सवेरा नहीं,
राहतें नहीं, इबादतें नहीं, ठिकाना नहीं, बसेरा नहीं...
ये किस नूर की सताइश सुनता हूं हर ज़बां से मैं?
इन अक्ल के अंधों को क्या दिखता अंधेरा नहीं?
किसने दी ये रहगुज़र, किसने आखिर ये मकाम दिया,
क्यूं तमाम ख़्वाब देकर, दस्त-ए-मुस्तकीं फेरा नहीं?
शुक्रगुज़ारी मांगते हैं गोया हिसाब हो किसी कर्ज़ का,
फिर बात-बात पे लड़ना कि ये मेरा है ये तेरा नहीं...
ये जो भी है उसका क्या करें, क्यूं करें, क्यूं न करें?
सवाल ज़बां पे लटका दिया, जवाब खिरद में उकेरा नहीं!
कहने को तो बांटी हैं मुहब्बतें तमाम दुनियां को मगर,
न मैं खुद मेरा, न खुदा मेरा, और कोई शख्स मेरा नहीं...-
हर लम्हा परखते रहे और कुछ परख नहीं पाए,
बेखुदी के तमाम इल्मों से कोई सबक नहीं पाए...
हवा नहीं मंज़िल की, नक्श नहीं रह-गुज़र का,
खो गए कहीं सफ़र में मगर भटक नहीं पाए...
ये कैसा ख़्वाब था कि उससे नज़र भी न मिली,
ये कैसी नींद थी कि पलक भी झपक नहीं पाए...
दायरा-ए-गर्दिश समेट लिया परवाज़ ने यूं तो,
नशेमन बुनते मशरूफ, परों ने फलक नहीं पाए...
खलवत ने भी मौसिकी-ए-अश्क मुनासिब न जानी,
हम ख़ामोश रो लिए मगर सिसक नहीं पाए...
तमाम उम्र मांजा खुद को आयना देख-देख कर,
गर्द हो गए फ़िरदौस, मगर चमक नहीं पाए...-
तमाम ख़स-ओ-खाशाक की मर्तबां ये दुनियां,
बनी बैठी बंजर बियाबान की बागबां ये दुनियां...
क्या ताव, क्या तेवर, क्या तरकीबें, क्या नुस्खे!
हर बात पे यूं इतराती बदगुमां ये दुनियां !
कैद के इश्तेहारों का अंदाज़ तो ज़रा देखिए!
बताती मेहमान हमें, खुद को मेज़बां ये दुनियां...
ये खुद-पसंदगी, ये खुश-मिज़ाजी पे हैरत है बड़ी,
खुद ही चोर बनती, खुद ही पासबां ये दुनियां...
हम गर्दिशों की सियासत की दाद क्यूं न दें?
जो विरासत में लाई लंबी ज़बां ये दुनियां!
दर-ए-अदम पे सौदा हर ज़िंदगी का कर के,
सबको ज़िंदगी सिखाती खामखां ये दुनियां....-