🅳éé🅿🅰🅽🆂🅷u 𝗽𝗮𝗿à𝘂𝗵𝗮   (𝕯éé𝖕𝖆𝖓𝖘𝖍𝖚 paràuha)
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Joined 9 September 2020


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Joined 9 September 2020

कलयुग ये कैसी उल्टी गंगा बहा रहा है।
माता पिता को श्रवण ठोकर लगा रहा है।।

कैसे लिखेगा कोई फिर से महान भारत।
इस देश का अर्जुन सट्टा लगा रहा है।।

पहले था एक रावन और एक ही थी सीता।
अब हर गली में रावन सीता चुरा रहा है।।

मज़दूर का एक बेटा रोटी को तरस रहा है।
मुनीम जी का कुत्ता रबड़ी को खा रहा है।।

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गलती तेरी नहीं जो तू गुस्से में आ गया।
पैसे का ज़ॉम था तेरे लहज़े में आ गया।।

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हैं ऐसे हालात बाग में माली के।
सब अंधे हैं सावन में हरियाली के।।

हमको मरू स्थल ने किया है नाग फनी।
वरना हम भी हिस्सा थे चन्दन की डाली के।।

ए. सी . कमरे से मालूम नहीं चलते।
संकेत दूब की ओस, धान की बाली के।।

वो भी जिनका खुद व्यक्तित्व मोम सा है।
खड़े हुए हैं निकट सूर्य की लाली के।।

किसमें कितनी मर्यादा है मालूम हमें।
किस्से पढ़ रक्खे हैं राम और बाली के।।

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यदि प्रतिकूल परिस्थितियां हो,
अवसादों की स्थितियां हों।
पग त्राण बना हो विघ्न अगर,
मन हो जाए उद्विघ्न अगर।
तो यह घड़ी नहीं विस्मयों की है,
ये चाल समय हयों की है।

सहसा घिर जाए अंधकार,
बाधाओं का बवंडर अपार।
मन में उठते अनगिन विचार,
निज पौरुष पर करते प्रहार।
तो ये बेला आत्म परिचयों की है,
ये चाल समय हयों की है।

मन करता हो क्षण क्षण छल,
अपर्याप्त लगता हो बल।
बस एक विचार क्या होगा कल,
संसार बना हो समरस्थल।
तब आवश्यकता दृढ़ निश्चयों की है,
ये चाल समय हयों की है।

कोदण्ड अभय,संधान अभय,
इस आयु का बलिदान अभय।
अभिशाप अभय,वरदान अभय,
शक्ति, समर्थ, अभिमान अभय।
ये स्थिति मात्र विजयों की है,
क्या हुआ जो चाल समय हयों की है।

–:DEEPANSHU PARAUHA:–

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अब नौका तट को छोड़ चली।
न जानें अब किस ओर चली।।

अब निगल भले ले धार मुझे।
पर लौटना नहीं स्वीकार मुझे।।

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कभी मायूसी , कभी गुरूर, कभी नाकामी की शायरी।
दिल का लहू, तो कभी आँख के पानी की शायरी।।

पढ़ तो हमनें भी रखा है यूं खिलझी का जीतना।
मगर धन्य है वो महान पद्मनी रानी की शायरी।।

कागज़ में लिखे चंद हर्फ ये कैसे बताएंगे।
कलम कि हि तरह स्याही के जवानी की शायरी।।

Ethics को पढ़ने से मालूम हुआ हमको।
ज़माने के साथ अपनी बेईमानी की शायरी।।

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ख़्वाबों की तरह, हकीक़त की दिलबरी में नहीं मिलते।
झूंठे लहज़े कभी हमारी शायरी में नहीं मिलते।।

हम अगर किसी को छोड़ देते हैं, दिसंबर की तरह।
लाख कोशिशों के बाद भी जनवरी में नहीं मिलते।।

जख्मों की कशिश ये है बस इतना सा समझ लें।
बेबफाइयों में मिलते हैं बेहतरी में नहीं मिलते।।

ग़ज़ल का गुरूर है जो वहीं अपना गुरूर भी।
मस्नादों कि तरफ़ झुक के कलंदरी में नहीं मिलते।।




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हंसते चेहरे में छलकते गम हैं ये तुम्हें मालूम ही होगा।
गमों के गिरफ्त में हंसते हम हैं ये तुम्हें मालूम ही होगा।।

कर लिया करिए हुज़ूर हमसे भी दो बात ज़िंदगी की।
बाकी ये मौत का मौसम है ये तुम्हें मालूम ही होगा।।

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तश्नगी के बाद रोशनी के साथ भी।
एक जंग चल रही है ज़िन्दगी के साथ भी।।

हमनें रंग बदलने का हुनर सीखा हि नहीं सो।
लहज़ा वही रखा है अजनबी के साथ भी।।

धोखा लिखा के लाए हैं मुकद्दर में हम अपने।
आशिक़ी के बाद दोस्ती के साथ भी।।

बदन आधा फंसा हैं शिकंजा-ए-हालात में लेकिन।
दोस्ती जो दरिया के साथ थी है नदी के साथ भी।।

प्यादा -ए -सुकूं हारा है बज़ीर-ए-वक्त से ऐसे।
हम समझौते करते फ़िर रहें हंसी के साथ भी।।

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हमारी दोस्ती का और कोई symbol नहीं होता।
तुम्हारा account भी यूं कभी official नहीं होता।।
तुम्हारी शायरी, शेर और ये लहज़े की रंगत।
ये कुछ भी नहीं होते अगर google नहीं होता।।

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