अपने ज्ञान, पद, शरीर, धन, बल की श्रेष्ठता सिद्ध वही करता है। जो इन सभी में स्वयं को अंतर्मन से निर्बल मान चुका होता है। ऐसा व्यक्ति द्वेषी, क्रोधी, नकली होता है।
जिस तरह इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस में मैमरी का स्टोरेज विद्युत तरंगों के रूप में होता है। वह मेमोरी वहाँ है भी और नहीं भी। उसको पुनः देखने, सुनने के लिए योग्य डिवाइस चाहिए होता है। वैसे ही जीवन की स्मृतियों का संचय भी हमारी आत्मा में होता है। स्मृतियाँ अच्छी रखो, पता नहीं किस जन्म में कौन सी याद आ जाए।
इस प्रकृति का, इस प्रकृति के जीवों का, स्व मानस प्रकृति का स्व काय प्रकृति का, निःशक्तजनों का, रक्षण, पालन, उपचार ही मानव धर्म है। जो इस धर्म का धारण करता है। वही सच्चा धार्मिक है।
सफलता ! यह न तो स्थिर है, न ही अंतिम है। यह नित नए बनाए गए लक्ष्य की प्राप्ति मात्र है। यह न तो धन है, न ही कोई पद है। यह मन की वह अवस्था है जो कि, जीत जाने का अनुभव कराती है।