जब पहली बार दिल धड़का था..."
चुपके से दिल में कोई एहसास जागा था,
शायद ये पहला प्यार था जो उस दिन से लागा था।
न उसने कुछ कहा, न मैंने इज़हार किया,
पर आँखों ने सब कुछ बिन शब्दों के स्वीकार किया।
स्कूल की घंटी भी अब अलग सी लगती थी,
वो जब सामने आती थी, साँसे थम सी जाती थी।
कॉपी के कोनों पे नाम उसका लिखना,
फिर छुपा लेना जैसे कोई राज़ हो सिखना।
उसकी एक मुस्कान, जैसे पूरी दुनिया मेरी हो,
और अगर न देखूं एक दिन — तो कमी सी कहीं हो।
ये उम्र नहीं थी समझदारी की,
पर दिल को लगी थी बेमिसाल यारी की।
पता नहीं वो प्यार था या कोई ख़्वाब,
पर 14 की उम्र में वही था मेरा जवाब।-
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“मैं बच्चा हूँ, पर बोझ से टूटा हूँ”
✍️ Alfaaz e Vijay
मैं बच्चा हूँ, पर हँसना भूल गया हूँ,
खिलौनों की जगह डर से खेलने लगा हूँ।
स्कूल की गलियों में तन्हा सा चलता हूँ,
दोस्ती की जगह तानों से डरता हूँ।
कभी माँ ने कहा – “औरों जैसे क्यों नहीं?”
पापा बोले – “नाम रोशन कर नहीं सका तू कहीं।”
न नंबर अच्छे आए, न किसी ने गले लगाया,
बस हर रोज़ मेरे होने पे सवाल उठाया।
कक्षा में जब कोई हँसा, मैं रो पड़ा भीतर से,
क्योंकि मुझे पता था — वो हँसी है मेरे ऊपर से।
मोबाइल की स्क्रीन बनी मेरी हमराज,
जहाँ किसी को मेरी चीख नहीं लगती आवाज़।
मन में घुलती जा रही थी एक चुप सी पीड़ा,
जिसे ना माँ ने जाना, ना पापा ने सुना धीरे-धीरे।
एक दिन कमरे में दरवाज़ा बंद कर लिया,
ज़िंदगी से रिश्ता हमेशा का छुपा लिया।
मेरी कॉपी के आख़िरी पन्ने पर सिर्फ़ इतना लिखा था –
"मैं बच्चा हूँ... बस थक गया था..."-
“सत का सौदा”
(लेखक: Alfaaz-e-Vijay)
साँझ ढले जो दीप बने, वो खुद जल के रोए,
औंधा साधु ज्ञान बाँटे, भीतर साँप संजोए।
भीतर जालसाज़ी के, बाहर ओढ़े चादर,
राम नाम की माला फेरे, और मन करे व्यापर।
गेरुए रंग की धोती में, सौदे हो अनमोल,
"त्याग" लिखा दरवाज़े पर, भीतर सोने के बोल।
कबीर चले थे पगडंडी, रैदास चले मैदान,
ये बाबे चलते गाड़ियों में, पीछे भक्तों की जान।
भभूत रगड़ें लाशों की, बोले ‘मोक्ष दिलाऊँ’,
पर खुद के भीतर गंध सजे, फिर भी गले लगाऊँ।
गुरु वही जो जला सके, तेरे अंदर की काई,
बाक़ी सब हैं मुनाफा खोजें, कहें ‘गुरु जी आयें भाई।’
नंगा सच्चा भेस रहे, झूठा लिपा हुआ चंदन,
संत वही जो जल जाए, बनकर खुदी का बंधन।-
ढाई आखर का जीवन
✍️ Alfaaz e Vijay
ढाई आखर प्रेम का,
पढ़े जो, सो जान।
जीवन का हर एक पल,
साँच बुझे भगवान॥
ना माया, ना मोह है,
ना जग की पहचान।
मन का दीपक जो जले,
मिटे वहीं अज्ञान॥
राह ना पूछो बस्ती की,
चलना तुझको होय।
सत्य-सुख की बात में,
छुपा अमर रस होय॥
तन है कांच, मन है धूप,
छाया कर विश्वास।
जीवन की इस वीणा में,
बजा प्रेम का राग॥
कर्म कर, हरि नाम ले,
भ्रम को दूर भगा।
ढाई आखर जो जिये,
सोई जग में भला॥
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In english we say Ignore
But in Sayri
यु तो तुझपर कोई इत्यार नही मेरा ।
पर जहर लगते ह तेरे आस पास भटकने
वाले। $-
म तेरे इश्क़ में ऐसा फँसा
✍️ Alfaaz e Vijay
म तेरे इश्क़ में ऐसा फँसा,
जैसे कोई दरिया में कश्ती फँसा।
ना किनारा मिला, ना साहिल मिला,
बस डूबता ही रहा, बेख़बर सा फँसा।
तेरी चाहत की गलियों में भटका बहुत,
हर मोड़ पे बस तेरा अक्स मिला।
ना ख़ुद को बचा सका, ना तुझे पा सका,
इस मोहब्बत में हर लम्हा ही बुझता मिला।
आँखों में ख्वाब थे, पर नींदें नहीं,
दिल में तू था, पर सुकून नहीं।
तेरी जुदाई ने ऐसा असर कर दिया,
की धड़कनों में भी अब शोर नहीं।
अब तो मैं तेरा, और तू मेरी नहीं,
यह दर्द की राहें भी अजनबी नहीं।
फिर भी इस दिल को बस एक ही ग़म,
कि म तेरे इश्क़ में ऐसा फँसा,
कि अब न खुद का पता, न कोई हमसफ़र।
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तुम बिन मैं कुछ नहीं
तुम बिन सूना आँगन मेरा,
ख्वाब भी हैं अब बेजान से।
बिन तेरे ये दिल वीरान सा,
जैसे हो सूखे मैदान से।
तुम बिन बहारें भी सूनी लगीं,
चाँदनी भी अब काली सी है।
साज भी रोए, गीत भी रोए,
हर धड़कन अब खाली सी है।
तुम बिन हवाएँ भी चुप-चाप हैं,
बारिश की बूंदें भी रोती रहीं।
सूरज की रोशनी भी ठंडी लगे,
चमकते सितारे भी सोते रहे।
तुम बिन अधूरा ये जीवन लगे,
जैसे साज बिना कोई गीत हो।
तुम लौट आओ, रोशन करो,
वरना ये दिल बस रेत हो।
~अल्फ़ाज़-ए-विजय-
सब संसार एक रे भाई,
काहे बांटे जाति-धरम?
एक ही माटी, एक ही पानी,
सबका तन एक ही करम।
ऊँच-नीच के फेर में फँसकै,
मन का करै अहंकार,
कबहुँ ना साथ ले जाय कुण,
छूटै सब संसार।
रोटी-सब्जी एकै जैसी,
काहे करे भेद-भाव?
प्रेम बाँट ले, मेल बना ले,
याही में सुख के भाव।
जीवन चार दिन को मेला,
क्यूँ करे मन में छल?
साँच-कर्म से नाम कमाले,
बाकी सब माटी जल।
— अल्फ़ाज़-ए-विजय-
भगवान तेरी माया बड़ी प्यारी रे
(पहली मील)
भगवान तेरी माया बड़ी प्यारी रे,
हर सांस में बसी तेरी किलकारी रे।
फूलों में तेरा रूप निराला,
धरती पे बिछी तेरी फुलवारी रे।
(दूसरी मील)
सूरज की किरणों में तू झलके,
चंदा की चाँदनी में तू छलके।
हवा के झोंकों में गीत तेरा,
बरखा की बूंदों में तू छलके।
(तीसरी मील)
माँ-बाप की मूरत में तू बसता,
उनके आशीष में स्नेह बरसता।
माँ की ममता में तेरी छाया,
पिता के हाथों में तेरा सहारा।
(चौथी मील)
मंदिर-मस्जिद, गुरुद्वारा में बसे,
गंगा-जमुना की धारा में हंसे।
हर दिल में तेरा निवास है प्रभु,
कण-कण में तेरा उजास है प्रभु।
(पांचवीं मील)
अल्फ़ाज़-ए-विजय ये गाता रहे,
माँ-बाप का मान बढ़ाता रहे।
तेरी ही माया, तेरा ही खेल,
तेरी भक्ति में झुकता रहे।-
पतझड़ उड़ती लड़की
हवा के संग जो उड़ चली,
वो पत्तों जैसी लड़की थी।
रंग बदलते मौसम जैसे,
ख़्वाबों से भरी झोली थी।
कभी बहारों की खिलखिलाहट,
कभी पतझड़ की तन्हाई थी।
खुद ही खुद से रूठ के चलती,
खुद ही खुद की परछाई थी।
रस्ते सारे छोड़ के निकली,
मंज़िल भी अनजानी थी।
वक़्त के संग बहती रही,
पर कोई कहानी बाकी थी।
अल्फ़ाज़-ए-विजय की कलम से,
उस उड़ती रूह की बात कहूं,
जो गिरकर फिर संभल गई,
अब आसमां की औकात कहूं।
— अल्फ़ाज़-ए-विजय
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