||समय का पहिया चलता है||
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People have given me many names as they felt me, personally I'm dangl... read more
।।हिंदी हमारी बूढ़ी माँ।।।
आज अगर पुरखों को ना सम्मान दिये, माताओं को भूलेंगे,
उनको बोल चाल व कहा सुनी को, टाल मटोल किये रहेंगे।
तो फिर वो दिन दूर नही जब स्वदेशी के लिये भटकोगे,
परदेश तो काम न आवेगा, देश मे विदेशी कहलाओगे।
अपने किये का सारा खाता यही पे बंद कराना होगा,
हिंदी में ही पढ़ लिखकर, उचित स्थान पाना होगा।
यदि भटकोगे मातृभाषा से, मानसिक गुलामी दूर नही,
माता का करके अपमान, द्वेष की राह जाना होगा।
गुलामी कर के केवल, भरण पोषण के लायक होगे
अभी हिंदी से रूठ, जो अपमानित सा बने हुये हो।
अवहेलना व ठेश पहुचा कर यौवन को तो जी लोगे,
पर सोचो अपना हश्र जब लाठी की जरूरत होगी,
अंग्रेजी से काम न बने पावेगा, अन्य भाषा फिर हावी होगी।
फिर अपनी भाषा अबोध होगा, पराई भाषा भी दूर गयी
अन्य भाषा सीखना होगा, अपनापन फिर कहाँ मिलेगी।
इसलिए है मनु, न करो पुरनिया का अपमान
जो अवगुण, दोष देख रहे हो, करो तुम उसका समाधान।
देखोगे तो गुण, धर्म दिखेगा, स्नेह, प्रेम को याद करो।
परोपकार से ही सबका भला, ऐसी ही फरियाद करो।।।
।।पढ़ने के लिए हार्दिक आभार😊🙏।।
सप्रेम डॉ सिद्धार्थ बरनवाल🌹-
हिंदी हमारी बूढ़ी माँ
घर से निकाली गई हूं, माता भी कहलायी हूँ
सभी जननी की तरह मैं अपनो से नही लड़ पायी हूँ
बच्चे हमे बूढ़ी माँ समझे, बड़ो को फूटी नही सुहायी हूँ
मैं मातृभाषा हिंदी हूँ अपनो से कतरायी हूँ
जो भी पढ़ लिख लिया, उसी से अपमानित पायी हूँ
राष्ट्रभाषा की बात छोड़ो, लोक निवास से दूर भगायी हूँ
ककहरा सीखते बालमन, अब अनुवाद से जानी जायी हूँ
निज भाषा की उन्नति छोड़, अवनति की ऊंचाई पायी हूँ
जो लोक मुहावरें व्यंग कसीदे, घर घर बोले जाते थे
पीड़ा के भाव को भी रग रग से तौले जाते थे
पिरकी पिराता, जले भभाता, कहीं पांव फटा जाता,
जैसे विविध कोश, मेरे आँचल के सुख पाते थे
अंग्रेजी मानो नयी नवेली पुत्रबधू का रूप ले आयी है,
सु नैन नख्श, सु रहन सहन, मर्यादित यौवन को पायी है
एक्सक्यूज़ मी कहकर बोलना, सॉरी कह मनाना,
गुडमार्निंग कह मुस्काना और दूर... से नमन कर लेना
मानो सारी त्रिया को अक्षरशः सीख कर आयी है,
कोने में पड़े, ठिठुरे, 'पांव छू प्रणाम' को लजाते आयी है
पर चार दिन की चांदनी खूब समझती, माता तो सब जानी है,
जो हश्र आज उसका है, वो अंग्रेजी बहु की भी होनी मानी है
ये लोक समाज औ मतलबी दुनिया, केवल आवश्यकता को ही जानी है,
जब खुद बूढ़ी होगी अंग्रेजी बहु, तो किन्ही औरों से चने चबानी है
विकाश तो अंगूठा दिखावेगा, अपना जाल बिछावेगा,
पर है ज्ञानी!! मनु तुमको कभी तो भूल पछतानी है।
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होली का पर्व निराला, मिटाता मानस मन से अहं की ज्वाला।
भेद भाव को दूर भगाकर, सबको पिलाता प्रेम का प्याला।।
विभिन्न रंगों को साथ लेकर ये सतरंगी दुनिया बनाता।
सारे वर्ण है एक समान, लोगो को ये धर्म बताता।।
जैसे इन्द्रधनुष में सभी वर्णो की जरूरत है ।
हर वर्ग मिलजुल कर बदलते समाज की सूरत है ।।
सम्मान करें हम परहित का, उल्लास भरें समरसता का।
होली पर्व में दिखाये जग को, राष्ट्रधर्म के विविधता का
जोगी रा सा रा रा रा भी होगा, असल मे होली खेलेंगे सब।
शिक्षित समाज बनेगा यहाँ, महत्व रंगों का समझेंगे जब।।-
आप जिइये अपने रंगों के साथ,
दिल्लगी आपसे इसी तर्ज़ पे है ।
यकीं ना आये तो पूछ लेना खुद से,
दिमाग नहीं, मन की बात इसी अर्ज़ पे है ।।
दिले बयां करिए, बंदिगी के लिए सज़दे में सर झुकाने का,
दिल्लगी हो गयी आपसे, इन्तेज़ा है दामन थामने का।
अब तो शमा जला देते, टूट रहा सब्र परवाने का
सब तय है हमारा, जानना है हर्फ़ सामने का।।-
साहब हमे माफ करिये, हम जबाब कहाँ, मांग पायेंगे।
हमने वोट जिसे दिया, उसी से कैसे लड़ पायेंगे।
फिर कोई ना कोई तो आवेगा, वोट मांग ले जावेगा,
हम मजदूर थे, है व रहेंगे, इक वोट से हमे क्या मिल पावेगा।
परदेश मे परदेशी बने रहे, सर निचे कर, मेहनत से पेट भरते रहे।
अब गांव की पगडंडी याद आयी है, पर अपने भी पराये करते रहे।
हम तो निकल लिये, क्षितिज मिलन करने को,
एक राज से दुजा राज एक करने को।
सर पे गमछी व पेट पे रस्सी बाँधकर,
गांव की धुनि रमाये, बस्स कदम से कदम साध कर।
कभी तो चेतन्गे सारे,
अपने, अपनो की पुकार सुनकर।
वो सोते रहे औ हम जग भी ना पाये,
पटरियों ने भी सहारा दिया, काल बनकर।
कोई बात नही,
हम मखमल पे सोने वालों मे नही,
हम तो मीलों जाते है, कमाने के लिये।
हम सरकार भरोसे कैसे बैठे,
जो पानी पिते है, भूख मिटाने के लिये।
सिद्धार्थ बरनवाल, 20।05।2020-
अर्रे आओ चलो तुम संग मेरे,
साथ बन ही जाएगी।
तुम कुछ बोल के तो देखते,
बात बन ही जाएगी।।
होंगे.... हा होंगे बहुत तेरे मेरे कहकहे,
पढ़कर आंखों को माफ हो ही जाएगी।
बहुत गलतियां माफ करते है लोग प्रीत में
अच्छाइयां भी दिख जाएंगी, बात बन ही जाएगी।।
चलो एक बार जरा फिर से सोच के देखते है,
एक बार खोलते है, अपनी पुराने बस्ते को।
कुछ ना कुछ सुखद पल मिल ही जाएगी,
जरा पास आ जाओगी, तो बात बन ही जायेगी।
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जीवन एक संघर्ष है, संघर्ष ही ये जीवन है,
प्रसन्नता में जीवन है, जीवन तभी प्रसन्न है।
सीमा कोई नही है सुख व दुख में भेद को,
सुखिया खुश हो जाये मात्र ग्रहन कर जलपान को,
स्वर्ण कलश भी मलिन लागे विचलित दुखन को।-
हल्की रोशनी में तपा हुआ तेरा
अस्क नजर आ रहा है।
कुछ दूर से सुनाई दिया,
क्या तुमने मुझे पुकारा है।
बिसरे तो नही होंगे नाम हमारा,
कहीं न कहीं तो सोचते ही होंगे
गर हम इतने ही बुरे थे तो
फिर हमें कैसे स्वीकारा है।
बैठा संग चुस्कियों के डूब जाने को
तेरी हर आदाओं को याद कर,
खो जाने को मन था कि
तूने मुझे क्यू नकारा है।
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