आओ वापिस चलें उस बच्चन में,
गांव के माटी के मकान में,
उन दिनों में जब मोहल्ला परिवार था,
जिन दिनों नफरत को हरा हम आए थे,
मुझे मालूम है हम वही लोग हैं,
जिनके अपनों ने शहादत दी थी,
बहाया था लहू मतलबपरस्ती को मिटाने को,
मुद्दतों इस गुलिस्तान को सींचा था पसीने से,
मुद्दतों की गुलामी की जंजीरों को तोड़ा था,
आज भी कर्ज है हम पर उस गुजरे कल का,
हम वही हैं जिन के दिल में कभी जज़्बात थे,
भाईचारा बसता था और सेवा भाव था,
जिंदा दिली थी और थी सादा दिली,
हर तरह की सियासत से दूर था मेरा गांव वो मोहल्ला,
बर्बरता को बमुश्किल त्याग हम आए हैं,
फिर आज माहौल दहशत ज़दा क्यों है यहाँ?
फिर गलियों में खामोश छाया नहीं आने दो,
फिर आकाश को धुयें की गर्त में न जाने दो,
मत बहको य भटको किसी के बरगलाने से,
क्या सोचा भी है?हमारे बच्चो को अभी जीना है?
जो बहकाए हमें, ऐसे किरदार से हमें बचना है?
बढ़ रही थकान है और है अजब उदासी है,
याद रखने की बस इक छोटी सी बात है,
यह माटी हर फिरका ओ फर्द से है बड़ी,
तरक्की की आड़ में खो बहूत कुछ रहे हम,
वो हवा की ताजगी वो खुला नीला आसमान,
आलम यह है की दिमाग को कैद कर रहा माहौल,
शायद दिखाया समझाया कुछ और जाना था हमें,
सोच को गुलाम कर नहीं बैठना है हमें,
इंसान हैं इंसानियत को तो जिंदा रखना है हमें।
-