गीत
शब्द ही शृंगार मेरे, शब्द ही संधान है।
शब्द ही आधार जग के, ब्रह्म के प्रतिमान हैं।।
शब्द से ही गीत बनते, शब्द मन की साधना।
शब्द नित ही प्राण सबके, ओम नित आराधना।।
शब्द से पहचान मेरी , सिंधु अंतस प्रीत है।
है यही अनमोल हिय के , प्राण की नित जीत है।।
जो कहो वो सत्य होगा , ईश का ही मान है।
शब्द ही शृंगार मेरे , शब्द ही संधान हैं।।
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कभी सोचा कहाँ
तुममें यूँ ढल जाऊँगी
प्रकृति बन
निखर जाऊँगी
सत्य स्वरूप हो
समर्पण बन जाऊँगी
शाश्वत बन तेरा ही
आइना बन जाऊँगी
वैदिक मंत्रों का
साथ पाकर पावन
अग्नि बन जाऊँगी
नारी हूँ
मैं ......कहाँ हूँ...?
ये स्वयं न जान पाऊँगी
कहने को सब कर जाऊँगी
बस प्रेम बन सर्वस्व
बिखर जाऊँगी....।-
सदैव भूल यही करती हूँ।
कविता को खो देती हूँ,
वो रहती है मेरे पास स्नेह विभोर हो
पगी रहती है मेरे भीतर ही भीतर
और ढूँढती है कोई भाव का सागर
जिसमें रहकर नित दिन कविता बन
कविता सी हो , कविता का कल और
कविता के आज में सन्निहित होना चाहती है।
हाँ ....वो कविता रहती है मेरे पास
कभी साँसों का सैलाब बन ,
कभी यादों की किताब बन
कभी भावों का सागर बन
कभी ममता की छाँव बन
रहती है मेरे भीतर है ।
हाँ...कविता रहती है मेरे भीतर ।-
*दिनांक : 14/3/23
*सृजन शब्द : कंचन*
*विधा : भगणाश्रित दोहे 211*
*कंचन* उर सुकुमारनी , *पावन* *निश्छल* नेह।
*लोचन* *अंजन* डाल के , *मोहक* हो ज्यों मेह।।
*मादक* *कंचन* रूप है , *शोभित* बिंदी भाल ।
*मोहक* *माधव* आज हैं , *लोहित* *लोहित* गाल।।
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विष्णु पद छंद
करूँ तेरी ही वंदना मैं , नित्य माँ शारदे।
पुकारती रहूँ सदा हिय में ,भाव नवल भर दे।
गुनगुनाऊँ गीत ग़ज़ल मैं , नूतन छंद बने।
लिख लूँ पल पल की बातों को , गीत नवीन सजे।
सद्गुण ऐसे दे मुझको माँ ,पीड़ा को हर लूँ।
सबके मुख पर हो आभा नूतन, नव उमंग वर लूँ।।
रच लूँ पावन महाकाव्य को, ऐसा अब वर दो।
अज्ञानी हूँ वीणावादिनी , ज्ञान ज्योति भर दो।
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अक्सर जीवन झंझावातों का नाम है।
तुम मिल जाय वो खनक का काम है।
काँटों पर चलना और लहू का बहना।
तुम पास हो तो गुलाब सा महकना।।
सोचती हूँ अक्सर अकेली सी हूँ मैं।
तुम मुझमें शामिल हो तब चहकती हूँ मैं।।
नहीं चाहती कोई मेरे पास हो इस सफ़र में।
शिद्दत से बसती हो मेरी धड़कनों के भँवर में।।
प्रार्थना ईश्वर से जन्मदिन की करती हूँ ।
प्रिय अनु तुम पर बहुत ही ज्यादा मरती हूँ।।
ये कहने से तनिक भी नहीं मैं अब ड़रती हूँ।
आपके हृदय में सदा ही मैं कहाँ ठहरती हूँ।।
मखमली धूप सी हो सखी सदैव आप ।
पुनीत रूह की स्वामिनी हो सखी आप ।।
अविरल नदियां की धारा सी हो आप।
मेरी हृदय में रहती हो सखी सदैव आप।।-
ऊँ जय-जय मधु दीदी
ओ मेरी प्यारी मधु दीदी
निशिदिन तुमको ध्यावत्
कैसे हम तुमको पावत्
तुम्हारे उर में आवत्
नहीं कभी हम जावत्
ऊँ जय-जय मधु........🎂❤️🍫😘
स्वप्न हमारे तुम आती हो
अनंत सुधा तुम बरसाती हो
तनिक गुस्सा नहीं करती हो
नेह में पल-पल मुस्काती हो
ऊँ जय-जय मधु ........🎂❤️🍫😘
कुछ भी कह दो तुमको
स्नेह से बाँध लो तुमको
मन ही मन ध्यायूँ तुमको
प्रतिपल पाऊँ मैं तुमको
ऊँ जय-जय...........-
छन-छनाछन झंकृत सी आवाज़ तुम
ओस बूंद का मखमली एहसास तुम।
मन की स्नेहिल परिधियों से बाँध ले
अनुरागी ममतामयी प्रतिपल छाँव दे।
अपनी मुस्कुराहटों से चंचल हँसी दे
सरगम लहरी धुनों को साकार करे।
मन को निर्मल करे ऐसी सरिता हो तुम
अपनी ही धुन की पवित्र ऋचा हो तुम ।-
असंख्य परिधियों बीच
कितनी उलझने हैं जो कभी
सुलझ नहीं पायेंगी।
जानती हूँ उन परिधियों से
निकल कर तमाम रास्तों को
एक -एक कर पार करना है।
उलझती हुई बातों को हृदय में
रख कर देहरी तो पार कर ली
बाबा के घर की....।
क्या ..कभी जीवन की देहरी को
समझ कर उसे पार कर पाऊंगी?
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सार छंद
मन को तुझसे बाँध लिया अब , आयी तेरे द्वारे ।
लोक लाज सब छोड़ दिया अब , कान्हा तुझ पर वारे ।।
तू ही मन वृंदावन मेरा , सकल काज तू प्यारे ।
तुझसे निखरे तन मन मेरा , तुझ पर जीवन हारे ।।
मनमोहन तुम हो जीवन धन , शरण तिहारे आयी ।
ठुकरा दो या अंक लगा लो , तुझसे प्रीत लगायी ।।-