पहुँचु कैसे अपनी मंजिल को, सबके मन की जो मानी है।
रह गया जो ख्वाब अधूरा, उसकी चाह पुरानी है।
बैठा हूँ जो मौत किनारे, जीवन या मृत्यु पानी है।
उजियारे की दौड़ में, मन में एक अंधियारी है।
कुछ में भुला बिसरा सा, अभी भी कुछ याद रवानी है।
जो में न पहुँचा घर को, सबके होश उड़ जानी है।
मिया उड़ गया जो बेखोफ परिंदा, कहीं तो थकान मिटानी है।
बंधा हुआ हूँ जंजीरो से, मेरी भी एक कहानी है।
आया हूं जब धरती पर अपने करम निभानी है।
पाला है जिन भगवंत ने, स्वाभाविक उनको आशा आनी है।
गुण दिया जो किस्मत ने, वह सबको कहाँ समझानी है।
सब वक्त का खेल है प्यारे, समझे जो फिर किस्मत ही बदल जानी है।
तराशा हमने खुद को ही, फुर्सत किसके हिस्से आनी है।
जब चाहा आगे बढ़ाना तो, बेमतलब की बात बतानी है।
यूं फिजुल जो वक्त गुजरा, पढ़ना लिखना ही नवाबी है।
जो वक्त पर ना बदले, ये खेल कुद मन की हर बात खराबी है।
बैठे हैं जो अपने ओदो पर, वही अपनी पहचान बनानी है।
माना मेरी राह अलग है, पर मेरी आत्मा आज्ञाकारी है।
किस पथ पर मैं निकलुं राही, असमंजस दिल में भारी है।
खुश रहेंगे जिसमें सब, या हो अलग, टूटी शाख रह जानी है।
सन्मुख बैठा मैं खुद के, कह रहा अपनी जुबानी है।
तू बस चल वक्त बदलेगा सब मिलेगा तुझे भी, जिस पथ का तू अधिकारी है।
विपरित बह तू सब खो देगा, अपनी राह फिर बनानी है।
बन कुछ तप कर तू, फिर मिट्टी तेरी दास्तान सुनानी हैं।
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