Dr. Mohd Danish   (Mohd. Danish)
264 Followers · 202 Following

read more
Joined 23 January 2019


read more
Joined 23 January 2019
16 MAY 2021 AT 21:14

ज़िन्दगी गुज़री है इस क़दर कश्मकश में,
उन हसरतों का क़त्ल किया है बेबसी में।।

कैसी कैफ़ियत है इस बिखरते हुए वक्त में,
जीना हो जैसे पल-पल खुदकुशी में।।

-


18 JAN 2021 AT 17:17

सोचा ना था उसने घर बनाते वक्त,
एक दिन वो उसी घर से बेघर होगा।

-


18 DEC 2020 AT 1:45

तकब्बुर था मेहताब को अपनी ताबानी पर,,,
एक नूरानी चेहरे ने उसे शर्मसार बना दिया।।

अदावतें, रंजिशे ना जाने फिर क्या-क्या हुआ,,,
उस शब-ए-वस्ल ने मुझे गुनहगार बना दिया।।

-


11 AUG 2020 AT 19:35

एक से उभरूं तो दूजा गले लगाले ,
ऐसा हादसों से भरा सफ़र है मेरा।

-


10 JUN 2020 AT 9:28

वो एक सफ़र जो कभी ख़त्म ही ना हो,
उस सफ़र में तुम्हारा हमसफ़र बनना है मुझे।

-


5 JUN 2020 AT 11:01

तलाशता रहा मैं अपने सवालों का जवाब,
जवाब ऐसा मिला फिर सवालात ना बचे।

लाज़मी था कि मैं उसको भूल जाऊंगा,
ज़हन में फिर मेरे कोई खयालात ना बचे।

गुज़ारी शबे-ए-हिज्र और मुंतजिर ही रहा,
बिखरा इतना कि कोई जज़बात ना बचे।

बेकद्री इस क़दर की इस अहले-जहां ने
इनायत ये कि अब कोई अदावात ना बचे।

तोहमत लगा मुझीपर मेरी बर्बादी का दानिश,
मुस्कुरा सकूं मैं फिर से ऐसे हालात ना बचे ।

-


30 APR 2020 AT 13:18

कुछ नया सा हुआ है ज़िन्दगी में,
समझने की कोशिश करूं तो लगता है
मानो किसी की दुआएं मुकम्मल हुई हों।

वो दरख़्त अब फिर से हरे हो रहे हैं,
उनमें एक नयी सी जान आगयी है।
कुदरत का कहऱ भी तो अजीब है,
कुछ जानें बेजान हो गईं तो कुछ
बेजुबानों में फिर से जान आगयी है।

वो आसमां जो बेवजह अपने
दामन पर दाग़ लिये रखता था।
ज़मीं के खुदगर्ज परिंदों के खातिर,
वो बे-गरज़ रो दिया करता था।
एक आंख उठाकर देखूं तो लगता
है जैसे उसकी शान वापस आगयी हो।

वो बेजुबान जो अपने ही आशियानों
से दर-बदर होते चले गये थे।
अब उन्हें फिर से लौटता देखता हूं,
तो लगता है जैसे अपने ही घर में
कुछ नये मेहमान आ गये हों।

इन हकीक़त को महसूस करना
चाहूं तो ऐसा लगता है दानिश यहां,
कोई नहीं चाहता ये बेवजह की हिजरतें,
पर करें भी क्या जब इंसान ही बेईमान हो गये!

-


28 APR 2020 AT 7:25

हर शख्स अपना सा था सफ़र-ए-ज़िंदगी में,
जरूरत के वक्त हम फिर भी तन्हा ही मिले।

-


28 APR 2020 AT 7:22

ज़िन्दगी गुज़री है इस क़दर कश्मकश में,
उन हसरतों को क़त्ल किया है बेबसी में,

कैसी कैफ़ियत है इस बिखरते हुए वक्त में,
जीना हो जैसे पल-पल खुदकुशी में।

-


15 APR 2020 AT 22:20

हुआ भी क्या था महज़ एक मुख्तसर मुलाक़ात,
ना जाने फिर क्यूं ज़िदगी उसकी आरज़ू में गुज़ार दी।

-


Fetching Dr. Mohd Danish Quotes