दर्दे-दिल को भुलाए रक्खा था
अंजुमन को सजाए रक्खा था
सिलवटें बेचैनियों का ख़ाका थीं
जैसे-तैसे छिपाए रक्खा था
कैसे मैं ख़ुद को तसल्ली देता
तेरी ख़ातिर बचाए रक्खा था
सादा-लौही मेरी ही दुश्मन थी
मुझको ही भरमाए रक्खा था
क्या अजब वक़्त के गोश्वारे थे
बस ख़सारे बनाए रक्खा था
@ डाॅ. मनीष वर्मा-
इक तेरा अक्स आँखों में तैरता है यूँ
मानो कोई चाँद झाँकता हो दरिया में
@डॉ. मनीष वर्मा-
जाने क्यूँ चाहता है दिल साबित करना
ज़िंदगी जैसे कोई इल्ज़ाम हो मुझ पर
@ Dr Manish Vermma
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तेरी कम-ज़र्फ़ी मेरे क़द को न पहचान पाएगी
तू मशहूर हो जाएगा मुझे बदनाम करते-करते
@डाॅ. मनीष वर्मा
कम-ज़र्फ़ी (ओछापन)-
ख़ाली सा कभी तो कभी भरा सा होता है
ज़िंदगी तेरा फ़साना क्यूँ ज़रा सा होता है
☪︎ डॉ. मनीष वर्मा-
छोटी सी बात ज़रा सा अफ़साना था
शगुफ़्ता लफ़्ज़ थे सफ़्हों पे वीराना था
☪︎ डाॅ. मनीष वर्मा
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अच्छा मिलेगा कैसे बुरा गर ना हो
होगा कहाँ से राम रावन अगर ना हो
☪︎ Dr. Manish Vermma-
वो था मह्व मेरी शिनाख़्त करने में
मैं कि गुम ख़ुद की तलाश करने में
@डॉ. मनीष वर्मा-
अब किस तरह की छिड़ रही है जंग मुझमें
अब कौन हो रहा है हर घड़ी तंग मुझमें
@ डाॅ. मनीष वर्मा — % &— % &-
यूँ ही नहीं फिर मैं गुलाब हो गया
कांटों पला जब से लाजवाब हो गया
@ डाॅ. मनीष वर्मा-