Dr Lalit Pharkya “Paarth”   (पार्थ)
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Writer
Belongs to MP
Joined 24 March 2022


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जब किसी कर्म में मन रम जाता है
तो वह कर्म पूजा बन जाता है
कर्म पाने की ख़ातिर हर कोई
कर रहा इस धरा पर जद्दोजहद
कोई कर्म को कहता प्रधान
तो कोई ना समझता नादान
कर्म की ख़ातिर ही आज चल रही
जीवन रक्षक आजीविका
कर्म पाने की ख़ातिर आज
बलवती है इंसान की जिजीविषा
जो कर्म को कहता जीवन योग
वही कर पाता सुख का उपभोग।

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जब तुम्हें पाने की तमन्ना थी




सिर्फ़ निभाने और निभाने की तमन्ना है।

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राजा हो या रंक
कौन नहीं मज़दूर यहाँ पर
कोई करता राज की मज़दूरी
तो कोई करता दिन की दिहाड़ी
कोई करता चौकीदारी तो
कोई चलाता पेड़ों पर कुल्हाड़ी
कम्बख़्त इस पेट की ख़ातिर
हर कोई इस जग में भटक रहा
चाहे पीर फ़क़ीर हो या भिखारी
दो जून रोटी के निवाले के लिए
कर रहा मज़दूरी खाकर गाली।

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वक्त से हारकर
कभी मत घबराना,
वक्त कभी न रूका है
न कभी कहीं रूकेगा,
आज बुरा वक्त है
यह भी बीत जाएगा,
मन में विश्वास रख
जीवन में कल सुनहरा
वक्त भी अवश्य आएगा।

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ज़िन्दगी एक पहेली है
ज़िन्दगी ग़मों की सहेली भी है
ज़िन्दगी से करोगे यदि यारी तो
ज़िन्दगी ही लगेगी इक दिन भारी।

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था वो ओर समय
जब मैं ख़त लिखने
पर करता था फ़ख़्र।
आज का क्या दौर
है आया, ख़त के
मज़मून को हर किसी
ने भूला ही डाला।
वो दौर था ख़त में
इश्क़ के इज़हार का
मजनूँ के बेइंतहा प्यार का।
ग़मों में दर्द बाँटने का
ख़ुशियों में शामिल होने का।
आज भी वो लाल बक्से
खड़े हैं ख़त के इंतज़ार में।

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आँखों ही आँखों में बात करते हैं हम,
करके बातें भुलाते हैं अपने सब ग़म।

जिन ग़मों की ख़ातिर आज हम जुदा हैं,
उसका दोषी सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ुदा है।

नहीं थी बेपनाह नियामत की आशा,
कुछ न मिला उससे जागी है निराशा।

अपनी ही ग़लतियों पर किसे कोसे,
जब ग़म ही आ गए हैं हमारे हिस्से।

“पार्थ” अब कुछ नहीं है इसका हल,
हाथ की मुट्ठी से रेत जो गई है फिसल।

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तुम्हारी चाहत को अगर मैं समझ पाता,
तो आज दर-दर की ठोकरें नहीं खाता।

तुम्हारी ज़रूरतों को अगर मैं समझ पाता,
तो आज मुसीबतों से निजात पा जाता।

तुम्हारी आरज़ू को अगर मैं समझ पाता,
तो आज समय बिताना मुश्किल न होता।

तुम्हारी हसरतों को अगर मैं समझ पाता,
तो आज जीवन का हर पल ख़ुशहाल होता।

तुम्हारी बेरुख़ी को अगर मैं समझ पाता,
तो कभी मेरा यह चेहरा बेनूर न होता।

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अकेलेपन में अक्सर मैं
अपने अक्स से ही बातें करता हूँ ,
जहाँ हम दोनों ही होते हैं
और होती है मेरी तन्हाईयाँ,
पूछता हूँ अपने जीवन
के उथल-पुथल और सुख-दुःख
भरे लम्हों पर उसके विचार,
यह सोचकर कि वह कुछ
जवाब देगी, देगी कुछ ढाँढस,
लेकिन वह कहाँ क़ाबिल थी
मेरे प्रश्नों का जवाब देने में,
वह तो सिर्फ़ और सिर्फ़ थी
मेरे इस नश्वर शरीर की अक्स।

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मैं दुनियादारी से हूँ बेख़बर,
बढ़ रहा हूँ मंज़िल की डगर।

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