|| हरियाली अमावस्या ||
आज अमावस्या हरियाली,
दिख, हरित-हरित सर्वत्र रहा,
प्रकृति के पूजन के हेतु,
गाँव सकल इह उमड़ पड़ा!
लाल-सफेद ध्वजा लहराए,
घूगर-बाखल संग प्रेम पकाए,
ग्राम देवताओं के दर दर जा,
हर्षित मन से भोग लगाए!
अहो! सनातनी कृतज्ञता का
भाव लिए अर्चन कर आए,
हरित दुशाला ओढ़ प्रकृति
देख उन्हें भृशं मुस्काए!-
हृदय में है मेरे जो वो, तुम्हें हर बार दिखता हूँ।
मिलावट है नहीं कोई... read more
।।चमचा-विश्लेषण।।
देखो देखो ये चाटुकार, लेते रहते हैं पुरस्कार,
ये चारु वाक् उच्चारक हैं, साहिब के झूठ प्रचारक है। १
आगे-पीछे नित डोलत है, शक्कर मुँह में रख बोलत है,
रसयुक्ता जीभ जलेबी से, साहिब को अपने तोलत है। २
कर्त्तव्य नहीं इनको को करना, तारीफ-कसीदे हैं पढ़ना,
ये कर्मदस्यु नालायक हैं, लेकिन फिर भी ये लायक हैं।३
वो चन्द्र नहीं वो सूरज है, जी जी हुजूर वो सूरज है,
जल बूँद नहीं है मोती है, वाह वाह हुजूर ये मोती है।४
अपनी बुद्धि को दूषित कर जो त्याग भला कर पाते हैं,
यूँ स्वाभिमान को मार मार, निर्लज्ज कथं हो जाते हैं?५
ये सर्वकाल में सकल भूमि पर सर्वदैव मिल जाते हैं,
संख्या में न्यूना होते हैं फिर भी कमाल दिखलाते हैं।६
ये धरातली कीटाणु हैं, बस एक की चार लगाते हैं।
कोई बतलाओ आज हमें, हुनर ये कहाँ से लाते हैं?७
कुछ साहिब ऐसे भी होते, जो चमचागीरी पिपासु हैं,
वे भी चमचे होंगे शायद, उनकी भी कोई सासु है।८
ये परंपरागत खेला है पर चमचा सदा अकेला है,
हँस हँस अपमानी शूलों को छाती पर जिसने झेला है।९
जो धर्मनिष्ठ हैं स्वाभिमानी हैं, चरण नहीं चूमा करते,
वे बेफिजूल दाएं-बाएं साहिब के घूमा नहीं करते।१०
कथनी करनी में भेद करे, वो चमचा है वो पात्र नहीं,
प्रगति का हेतु जीवन में मीठी बातें ही मात्र नहीं।११
चमचा जिस पात्र में होता, उसको ही खाली करता है,
चमचे से दूर रहो भैया,ये कर्ता नहीं बस हर्ता है।१२-
नए तजुर्बे लाती किश्ती,
अबकी गलती मत दोहराना,
निरन्तर ये सिखलाती किश्ती-
बातन को तौलकर, बातन को मोलकर,
बातन की थाली को परोस देना चाहिए!!
जित्ती जाकी भूख लगे, लोगन को दानकर,
आड़ा हाथ देख, बात रोक देना चाहिए!!
भली-भली कहोगे तो, खूब मन भावोगे जी!
खरी-खरी बोले तो फिर, मान कहाँ पाओगे?
जीवन निकर गओ, अनेक बड़े-बूढ़न को!
बातन को झोल जो समझ नहीं आओ रे!!
कहाँ? कित्ती? कब? कैसी? कौन बात बोलनो है?
आदमी जो जीवन में सीख नहीं पाओ रे!!
रसभरी, मदभरी, या कि जुबाँ विषभरी,
मान-अपमान की जे होत अजब गठरी!!
मितभाषी, मृदुभाषी, धीर धरो संयम को!
बातन को बाकी कोनो पार नहीं पाओ रे !!-
कभी-कभी जो अपच होता है!
और कभी तो too Much होता है!
लेकिन फिर भी सच तो सच होता है!
☺️😊😜😊☺️-
आए तूफान या आँधी,
वे डटकर खड़े,
विघ्न-बाधा से निशदिन
लड़े ही लड़े,
मन से मेधा समन्वित
करें और चलें,
उनके लक्ष्य बड़े,
फिर वे क्यों न बढ़े?-
।। सनातनोत्सव ।।
उत्सव परिचायक सुखानन्द के, मन-उर प्रसन्न कर देते हैं।
जीवन में व्याप्त समस्याओं का अपाकरण कर देते हैं।।
दीपों की माला उत्सव है, राखी का धागा उत्सव है,
उत्सव रंगों की होली है, उत्सव समाज हम-जोली है।।
चले चलो, चलते ही रहो, अनित्य जगत के मेले में,
नीरस न हो कोई तदर्थ, उत्सव ज़रिया इस खेले में।।
सुख-दुख आते जाते हैं,और दुनिया चलती रहती है।
धर्म-सनातन की महिमा ये, घर-घर रौनक रहती हैं।।
छोटे-बड़े व्यापारी देखो, सबकी कारोबारी देखो,
जीवनवृत्ति को देने वाली, सनातनी महिमा को देखो।।
परम्परा-रीति-रिवाज सब, पुरखों की निशानी है।
हम संवाहक है जिनसे ये अगली पीढ़ी को जानी है।।
मानव समेत हर जीव-जन्तु की सनातनी चिन्ता करते।
न कष्ट किसी को देते हैं, उल्टे सबकी पीड़ा हरते।।
सनातनी उत्सव सारे, प्रेरण समाज का करते हैं।
सन्तोलन-नैसर्गिक विकास के सब धर्मों को धरते हैं।।
ये सिखलाते हैं सुखानान्द में साथ रहो मिलकर भैया,
और दुखों में भी एक-दूजे की पार लगाओ तुम नैया।।-
।। रावण और मानव ।।
कौन दूध के धुले भला तुम? 'खुद' को 'महान' बतलाते हो।
पाप-खण्ड-भागी तुम भी, हर वर्ष अधिकार जताते हो।।
नष्ट हो चुके 'दानव' के 'पुतले' को जलाने जाते हो।
खुद के अन्दर के 'रावण' को, क्यों तुम न 'आग' लगाते हो।।
बड़े 'दोगले' हो साहिब, 'दोहरा जीवन' जी जाते हो,
खुद की बारी आती है जब तो 'नियमों' को लचियाते हो।।
सर्वादौ कर 'अन्तरीक्षण', निज दोषों का भान करो।
चुन चुन तज दो 'दुष्प्रवृत्तियाँ' 'सज्जीवन' आधान करो।।-
।। सब अकेले ।।
सब समय संग चले, खुद को एकाकी कर,
जन के सम्मर्द से खुद को कर के पृथक्
याद कोई भला क्यों करें प्रिय स्वजन
सब ही धुंधले पड़े, विस्मरण हो गए।
दिन थे वे ओर जब, साथ सब मिल रहे,
सब समझते परस्पर, कहे बिन कहे,
जो नियम थे कभी, पालना के लिए,
वे पुराने अहो! उद्धरण हो गए।
वक़्त की दौड़ में सब लगे भागने,
जिन्दगी को लगे अब सभी काटने,
यूँ मशीनों का घेरा लगा है परित,
जो करण थे कभी, उपकरण हो गए।
स्वार्थसिद्धि ही जीवन के लक्ष्य हुए,
अर्थवृद्धि ही लोगों के भक्ष्य हुए,
आँख-पानी मरा, घाव गहरे हुए,
भावयुत हृत-कमल के हरण हो गए।-
सिर्फ़ इसलिये झगड़ना, मैं दूर रहूँ तुमसे?
अच्छा नहीं ये तुख़्म, इसे फूटने ही मत दो।-